राजनीति में पार्टी का झंडा उठाने वाले कार्यकर्ताओं को सम्मान की आस होती है। यह सम्मान किसी को टिकट तो शेष को संगठन में पद के रूप में प्राप्त होता है। इसकी भी एक सीमा होती है। अब किसी भी टीम में भले ही कितने भी लोग हों, मगर कप्तान एक ही होता है। मगर शहर कांग्रेस की कहानी इसके उलट है। यहां शहर कार्यकारिणी में कप्तानों की भरमार है और टीम का सालों से इंतजार है। चुनाव में एक और हार के बाद प्रदेश नेतृत्व द्वारा हर दिन दनादन कार्यकारी शहर अध्यक्ष बनाए जा रहे हैं। यहां आधा दर्जन से ज्यादा अध्यक्ष बन चुके हैं, लेकिन उनके नीचे के पदाधिकारियों का अता-पता नहीं है। वैसे कांग्रेस को समझने वाले हैरान नहीं हैं। यहां पहले भी सिर्फ अध्यक्ष ही बनते रहे हैं और बिना टीम के कप्तान के भरोसे कई चुनाव पार्टी ने गुजार दिए। न पार्टी ने व्यवस्था बदली और चुनाव परिणाम भी नहीं बदल सके।
पुराने ठियों पर इन दिनों राजनीति की चर्चा है। सालों से प्रदेश की सत्ता से दूर कांग्रेस को इस बार जीत की गंध आ रही थी, लेकिन परिणाम इतने बुरे निकले कि सारे समीकरण फेल हो गए। वे भी हार गए, जिनके गले में जीत का हार तय माना जा रहा था। किसी को समझ नहीं आ रहा कि गलती कहां हुई। सबको इतना समझ आ रहा है कि जब तक संगठन भाजपा जैसा मजबूत नहीं होगा तब तक जैसी मजबूती की उम्मीद बेमानी है, लेकिन इसके लिए आवाज मुखर नहीं हो पा रही। खैर, परिणाम के बाद जितनी हैरानी कांग्रेसियों को थी, मुख्यमंत्री की घोषणा के बाद भाजपाई भी उतने ही हैरान दिखे। शहरवासियों को उम्मीद थी कि इस बार मुख्यमंत्री की कुर्सी इंदौर के खाते में आएगी, लेकिन ‘अपने’ कैलाशजी का नाम न होते हुए यह सेहरा ‘कैलाश’ की नगरी महाकाल के विधायक को सजेगा यह किसी ने सोचा न था। इस बार राजनीतिक समीकरणों ने सबको चकित किया है।
कहां भिड़ेंगे भारत और अफगान लड़ाके
इंदौर में भले ही बहुत बड़ा अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट स्टेडियम न हो, लेकिन प्रदेश को मिलने वाले सभी अंतरराष्ट्रीय मैच होते यहीं थे। जब विकल्प नहीं होता तो जो उपलब्ध होता है वही श्रेष्ठ होता है। मगर अब प्रदेश में नया विकल्प तैयार हो चुका है, जिससे शहर के प्रशंसकों की चिंताएं बढ़ सकती हैं।मप्र क्रिकेट संगठन ने अपना स्टेडियम खड़ा कर लिया है। नया स्टेडियम है तो जगह भी ज्यादा है और सुविधाएं भी। क्रिकेट के गलियारों में चर्चा है कि अगली अंतरराष्ट्रीय दावत ग्वालियर में ही होने की तैयारी है। अगली दावत को ज्यादा वक्त नहीं है। जनवरी में मध्य प्रदेश को अफगानिस्तान की मेजबानी करना है। अफगान लड़ाके पहली बार प्रदेश आ रहे हैं। अब देखना है कि भारत और अफगान का संघर्ष मालवा की माटी में होता है चंबल की मिट्टी में।
इस बार लगा पहलवानों का दाव
प्रदेश की सत्ता की चाबी नए साहब को सौंपी जा चुकी है। उज्जैन के मोहन यादव की घोषणा के बाद लाड़ली बहनों के चेहरे पर भले ही बहुत ज्यादा मुस्कान न दिखी हो, लेकिन शहर के पहलवानों के चेहरे खिल उठे हैं। यादव प्रदेश कुश्ती संघ के सालों से अध्यक्ष भी हैं। जबसे उन्होंने कुश्ती की बागडोर संभाली तब से अब तक प्रदेश में सरकार भी उनकी ही थी। मगर पहलवानों की जरूरतें ठीक से पूरी नहीं हुईं। मगर अब पहलवान मानकर चल रहे हैं कि अपने अखाड़ों की रौनक तो लौट ही आएगी। कभी प्रदेश के पहलवान यादव को साथ लेकर सत्ता के गलियारों में अपनी गुहार लगाते थे, अब किसी को कुछ बताने-समझाने की जरूरत न होगी। इंदौर में कुश्ती खूब होती है, लेकिन प्रदेश सरकार की कोई अकादमी यहां नहीं है। पुराने अखाड़ों को भी ठीक से अवेरा नहीं गया। पहलवानों का दाव इस बार कैसा लगता है इस पर सभी की निगाह होगी।