चुड़ैलों की खिलखिलाहट में दब गई जीवनदायिनी अजनाल की सिसकियां…!

             विष्णु कौशिक, भोपाल

– हरदा की जनता को ग्यारह साल से आईना दिखाता अनोखा तीर!

*राजनीतिक रंगमंच*—- नाम से मेटर के बीच में पट्टी लगाएं

प्रदेश के सबसे छोटे जिले हरदा से प्रकाशित दैनिक अनोखा तीर नामक इस अखबार ने अत्यंत कम वक्त में, तमाम किस्म की चुनौतियों और विघ्नसंतोषियों की अड़ंगेबाजियों से जूझते हुए निष्पक्ष विश्वसनीयता और ईमानदाराना पत्रकारिता के क्षेत्र में अपनी अलग पहचान तो बनाकर जन-जन के मन-मन में जगह तो बना ली, मगर हरदा के चिंतकों को मलाल तो इस बात का है और रहेगा कि लाख कोशिशों के बाद भी न तो जनता की दैनंदिन की समस्याओं और कठिनाईयों के निराकरण के लिए, वेतन भत्ते, मुफ्त की सुविधाओं तथा पेंशन भोगी सांसदों, मंत्रियों, विधायकों, जिला पंचायत के अध्यक्षों, पंच-सरपंचों तथा चुनाव काल में अपने-अपने हिस्से के नेताओं की गणेश परकम्मा में ही हरदा का विकास और जनकल्याण समझ आत्ममुग्ध होने वाले पराक्रमी राजनीतिक कार्यकर्ताओं, दोहरे चश्मे लगाए घर घुसे समाजसेवियों, साहित्यकारों, अखबारनवीसों और शाहों के शाह मौका परस्त नौकरशाहों को जगाकर लाम पर लगाने में पूरी तरह विफल रहा, इससे तो इंकार किया ही नहीं जा सकता। ऐसी ही परिस्थितियों में ऐसे ही नरपुंगवों के लिए प्रचलित मान्यता है कि दिनभर की हाड़तोड़ मेहनत मशक्कत से खुरदरी जमीन पर गहरी नींद में सोये हुए को तो एक बार जगाया जा सकता है, मगर अपनी खामियों, कमजोरियों और वादाखिलाफियों को छिपाने के लिए जो सोने का नाटक कर रहा हो, उसे परमपिता परमेश्वर उठा तो सकता है, मगर लाख कोशिशों के बाद भी जगा नहीं सकता। यह मान्यता हरदा के वाशिंदों पर पूरी तरह फिट और हिट होती है, इसे भी नकारा नहीं जा सकता। हम नहीं कहते, हालात कहते हैं कि सभी दूर से हताश निराश होने के बाद साधनों, संसाधनों और धन के अभाव से जूझते रहे अनोखा तीर के संपादक प्रहलाद शर्मा ने अपनी संपादकीय, मैदानी रिपोर्टरों की बेदाग टीम, गैरपत्रकार कर्मचारी साथियों तथा चंद सहयोगियों के नैतिक सहयोग से हरदा का दर्द अपने जिगर में पालने का बीड़ा उठाया और जिले के साथ-साथ जिले की जनता का मान-सम्मान बनाए रखने के लिए भिड़ गया। ईश्वरीय वरदान और हरदौल बाबा के आशीर्वाद से हरदा के मध्य से निरंतर आगे बढऩे का संदेश देने वाली जीवनदायिनी उस अजनाल नदी के आर्तनाद से जिम्मेदारों सहित जनता को जगाने, जो अजनाल नदी यहां-वहां पोखरों और गंदे गड्ढों में सिसक-सिसककर अपने सूखे कंठ में दो बूंद जिंदगी डालने का इंतजार कर रही है, मगर जन-धन से तीज-त्यौहारों पर भव्य समारोह और जश्न मनाने वालों तथा बदहाल कर दिए गए पैड़ीघाट को चुटकियों में चौपाटी बना देने के सपने दिखाने वालों ने जनता के टैक्सों से हासिल जनधन का कहां-कैसा इस्तेमाल किया होगा, जिस पैड़ीघाट पर कभी बारहों महीने पानी बहा करता था और साधनहीन महिलाएं कपड़ों के गट्ठर लेकर, कपड़े कूट-कूटकर घाट को गुलजार रखा करती थीं। अब हालात तो यही बयान कर रही है कि अगर हरदा के जिम्मेदार नौकरशाहों, नेताशाहों तथा समाजसेवियों ने समाज के प्रति अपने कर्तव्य से मुंह चुराकर चाहे-अनचाहे अजनाल को मौत देने की जिद ठान ली तो अजनाल भी कम जिद्दी नहीं है। गरीब-गुरवों को जीवन देने, बमुश्किल बचाए हुए पानी से पशु-पक्षियों का जीवन बचाने के लिए नदी ने भी जैसे संकल्प कर लिया हो कि मुझे मारने वाले भले ही मर जाए लेकिन मैं तो मरने वाली नहीं हूं और हरदा को जीवन देते रहने का जो संकल्प है उसे हर कीमत पर पूरा करूंगी। अब कोई प्रशंसा माने या कुछ और, यह सब उसकी अपनी प्राबलम है, मगर हकीकत तो यही है कि पत्रकारिता के माध्यम से प्रहलाद ने अजनाल केसाथ जनभक्ति तो खूब की होगी, मगर भड़ैती कभी नहीं की। यही वजह है कि पिछले सालों जहां धन्ना सेठों के बड़े-बड़े अखबार दम तोड़ गए, वहां छोटे-छोटे अखबारों की गर्दन कमलनाथ और तत्कालीन जनसंपर्क मंत्री पीसी शर्मा ने मरोड़ दी, मगर साधनहीनता की वजह से महिनों, अनोखा तीर के पत्रकार साथियों, छपाई वालों तथा अन्य मैदानी गैर पत्रकार कर्मचारियों को वेतन देने में असमर्थ प्रहलाद अखबार अनोखा तीर एक दिन के लिए भी बंद नहीं हुआ, बल्कि सिर उठाकर विघ्नसंतोषियों को चुनौती देता हुआ निरंतर प्रकाशित होता रहा। वैसे तो व्हॉइस ऑफ हरदा के नाम से अक्खड़-फक्खड़ पत्रकार महेश कौशिक ने भी निकाला और खूब निकाला, लोक विश्वास के साथ लोकप्रियता भी बटोरी, दड़ेगम लेखनी की वजह से ही लोग इस अखबार का इंतजार करते रहते थे। लेकिन कतिपय व्यवहारिक कारणों तथा बहुत कुछ दिल्ली वाले अफसरों की भेंट-पूजा न करने की वजह से प्रकाशन रोकना पड़ा। हालांकि इस बीच कुछ हमदर्द मित्रों ने अपने आपको मदद के लिए पेश भी किया लेकिन जब स्वाभिमान ही आढ़े आए तो फिर किया भी क्या जा सकता है। मगर दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि आज अनोखा तीर भी हरदा की व्हॉइस होने की भूमिका का निर्वहन कर रहा है। हरदा में एक वक्त वह भी था, जब कोई अखबार ही नहीं था और सबकुछ घंटाघर पर लकड़ी के बोर्डों पर सफेद और रंगीन चाकों से न केवल नगर की समस्याएं उजागर की जाती थी, अफसरों को सतर्क किया जाता था, वरन् नागरिकों को हमेशा जागरूक रहने का संदेश भी दिया जाता था, यह क्रम वर्षों चलता रहा। मगर आज अखबार भी हैं, चैनल भी हैं, अखबारनवीस भी हैं, लेकिन वह जागरूकता कहीं खो गई है, जो घंटाघर के ब्लेक बोर्डों से जगाई जाती थी। अब जहां तक मुझे जानकारी है जीवनदायिनी अजनाल को जीवन देने का मामला हो या शहर के विकास में सबसे बड़े रोड़ा बने उस रेल्वे डबल फाटक की जगह ओव्हरब्रिज बनाने का मामला हो, जो डबल फाटक किसी को सांसद, किसी को विधायक, किसी को पंच-सरपंच बनाने के लिए अपने आपको खोलता रहा, लेकिन हरदा के विकास के लिए आज भी विकास के मार्ग में जाम लगा हुआ है। अब जनसेवी नेताओं का जहां तक सवाल है उन्होंने और सरकार ने उनकी तकलीफों और दर्द को समझा तभी हरदा आने के लिए तीन ओर से सडक़ें बनवा ली। मगर उड़ा से हरदा आने के लिए ओव्हरब्रिज नहीं बना तो नहीं बना, हरदा का माल काटकर ‘‘मालगुजार’’ बने सांसदों, विधायकों, शासन-प्रशासन पर मंत्रियों से भी ज्यादा असर रखने वाले सी ग्रेड के नेताओं ने भी छककर माल काटा, लेकिन डबल फाटक का विकल्प नहीं दे सके। अब इसमें कौन सी लाचारी है या बात कुछ और ही है वही बता सकते हैं जो हर चुनाव के वक्त बार-बार वादे तो करते हैं लेकिन फिर अन्य समस्याओं में जनता को बहलाते रहते हैं या आस्था के नाम पर बहकाते रहते हैं। वैसे कहा नहीं जा सकता कि मामला कहीं लेन-देन पर तो अटका नहीं है। एक वक्त का वाक्या यादों को कचोट रहा है कि नेताजी चुनावसभा में धुंआधार भाषण फटकार रहे थे, अपने चहेतों से तालियां बजवाने का इशारा करते हुए उन्होंने रहस्योद्घाटन किया कि भाईयों, मैंने जनसेवा के अपने राजनीतिक सफर में पांच पैसे की भी ऊपरी कमाई नहीं की। तालियों के बीच ही एक ग्रामीण की आवाज आई कि नेताजी आपका बहुत-बहुत अहसान कि आपने पांच पैसे भी नहीं लिए मगर कुछ काम करके दिखाते तो हमें पांच पैसों के बदले पांच सौ रुपए की भेंट देना भी महंगा नहीं पड़ता। सभी जानते हैं कि चुनावकाल में ट्रक भर-भरकर वादे और इरादे लेकर कांग्रेसी भी आए, संघी-जनसंघी भाजपाई भी आए, प्रजा समाजवादी भी आए और निर्दलीय भी आए और ट्रकों में भर-भरकर लाए वादे भी उड़ेलकर वैसे ही चले गए जैसे नगरपालिका के कचरावाहक कचरा उड़ेलकर खाली ट्राली ले जाते हैं। मगर नेताओं के ट्रक खाली नहीं जाते, बल्कि उनमें मतदाता जनता का लूटा हुआ भरोसा हुआ करता है। वक्त गवाह है कि अनोखा तीर ने सोने का नाटक कर रहे लोगों को जगाने के लिए लिखा और खूब लिखा, मर रही अजनाल की फोटो सहित लिखा, खूब टोचा और खूब खिंचाईयां भी की, भविष्य की मुसीबतों से अवगत भी कराया, लेकिन फिर वही बात कि सोने का नाटक करने वालों को जब परमपिता परमेश्वर भी नहीं जगा सकता तो कलम रूपी संगीनों से कैसे जगाया जा सकता है। प्रहलाद और अखबार की कोशिशों का जिक्र बार-बार इसलिए करना पड़ रहा है क्योंकि इस शख्स ने अपने वजूद के लिए संघर्ष किया है, गरीबी भुगती है। शायद ही कुछ लोगों को मालूम हो कि आज इस अखबार का स्वामी संपादक प्रहलाद शर्मा एक वक्त इसी हरदा की उबड़-खाबड़ तपती तकड़ती सडक़ों पर आवाज लगाकर कुल्फी-मलाई बेचा करता था। एक वक्त वह भी था, जब भरी बरसात में बरसाती के अभाव में खुद भले ही भीगते मगर उन अखबारों के उन बंडलों को बरसाती में लपेटकर भीगने नहीं देते थे, जिन्हें अलसुबह लोगों के उठने के लिए के पहले घर-घर हॉकर के रूप में बांटा करता था। एक वक्त वह भी आया जब इसी शख्स ने भोपाल से प्रकाशित एक दैनिक अखबार में नौकरी कर पूरी प्रदेश की खाक छानने के साथ नापना भी पड़ी। इन बातों के उल्लेख का मकसद प्रहलाद शर्मा की शान बघारना नहीं है, बल्कि जमीनी हकीकत से बावस्ता करना है कि ईमानदारी, मेहनत और विश्वसनीयता, भुगतान देर से भले ही करे मगर करती जरूर है। प्रहलाद ने सडक़ों पर बगैर चप्पल से पैदल चलने वालों का दर्द देखा भी और भुगता भी, समाचार पत्रों में काम कर रहे पत्रकारों और कर्मचारियों के शोषण और दोहन को भी भोगा, यही वजह है कि अनोखा तीर के साथी पूरे समर्पण भाव से पत्रकारिता के मानदंडों के अंतर्गत अखबार का प्रकाशन कर रहे हैं। फिर संपादक जी की सबसे बड़ी खूबी उनका व्यवहार है, जिसकी वजह से वे उन लेखकों से प्रदेश की समस्याओं पर लिखवा लेते हैं जो लेखक बड़े अखबारों के बड़े ऑफर भी नकार देते हैं। खैर, पिछले हफ्ते हरदा और जीवनदायिनी नदी अजनाल की पीड़ा को लेकर संपादक जी ने एक सुंदर सपना देखा था, असल में वह सपना नहीं हकीकत थी, जिसके मूलतत्व, सुबह होने पर न मालूम चुडै़ल की दुश्मन पत्नी की फटकार की वजह से आगे की हकीकत बयां नहीं कर सके, अन्यथा सपने की हकीकत तो यह है बल्कि यही है कि जब संपादक जी पपिंजन पहंचे और पुरानी आदत से मजबूर मजा लेने के लिए अजनाल को जीवन देने वाले कुओं में झुककर बार-बार आवाज लगाई, मगर प्रतिध्वनि न आने पर जब पता लगाया तो वॉटरमेन ने बताया है कि पत्रकार जी असल में कुओं के भी जब कंठ सूख गए हों, तो आवाज निकल भी कैसे सकती है। संपादक जी ने फौरन नगर पालिका को फोन लगाया तो पता चला कि सभी अफसर से लेकर कर्मचारी हमेशा की तरह इस साल भी अजनाल बचाओ के तीन दिवसीय समारोह में व्यस्त हैं, फिर कभी बात करें तो बेहतर होगा। फिर संपादक जी चांदनी घाट, पैड़ीघाट, तथा गुप्तेश्वर होते हुए मुक्तिधाम सोनापुर पहुंचे और देखकर भौचक्के रह गए कि तमाम भूत-पलीतों और चुड़ैलों का मेला लगा हुआ है। कोई हंस रहा है, कोई ठहाके लगा रहा है, कोई अट्टाहास कर रहा है, कोई खिलखिला रहा है तो कोई रो-रोकर अपने ही बाल नोंच रहा है। तमाम भूत-पलीतों और देर-अबेर भूत पलीत बनने वालों को परेशान करने वाले अनोखा तीर और अनोखा तीर के संपादक को देखकर इसी उम्मीद में खुश-खुश हो गए कि अब उनकी समस्या के समाधान के लिए अब किसी वजन के नीचे स्वीकृति के लिए नोटशीट की जरूरत भी नहीं है। पूछा, आखिर कष्ट क्या है, जवाब मिला पत्रकार जी, इधर जीवनदायिनी अजनाल के सड़े पानी की बदबू के भबके, उधर ईंटों के भट्टों और सोनापुर की गर्मी के साथ कचरे की जलाई जा रही खंतियों का धुआं, अब आप खुद ही सोच लें कि ऐसी बदबूदार घुटन से घबराकर चिरनिंद्रा में सोने वाले हम जैसों की नींद खुल सकती है, मगर अपनी कलम से इतना टोचने के बाद भी हरदा के जागरूक कहे जाने वाले लोगों की नींद नहीं खुले तो फिर समझ लीजिए कि आपकी कलम में दम नहीं है या फिर लोग इतने बट्ठड़ और बेशर्म हो गए हैं कि भाले भी चुभे तो उन्हें कोई असर न हो, संपादक जी सोचकर माकूल जवाब दें, तभी अहसास हुआ कि कोई उन्हें झंझोड़ रहा है, आंखे खोलकर देखा तो रौद्र रूप धारिणी पत्नी महोदया खिलखिलाने की वजह के साथ पूछ रहीं थीं कि शादी के तीन-चार साल तक तो मुझसे भी खूब खिलखिलाकर, हंस-हंसकर आई लव यू का इजहार किया करते थे, अब किस चुड़ैल से टांका भिड़ा लिया कि हंसना-मुस्कुराना सब भूल गए, संपादक जी की समझ में सारा मांझरा आ गया, बात बढ़े इसके पहले ही कपड़े उठाकर रात के सपने के धूल-धप्पड़ से ‘‘मोक्ष’’ पाने के लिए बाथरूम में घुस गए।

और अंत में….
अनोखा तीर के सफल ग्यारह वर्ष पूरा कर लेने पर बधाई अभी नहीं, अभी तो सिर्फ और सिर्फ शुभकानाएं ही हैं, बधाई तो हरदा से उस वक्त मिलेगी, जब हरदा की नींद खुलेगी और घंटाघर के पास हरदा के हकों के लिए लडऩे वाला एक जमना जैसानी खड़ा दिखाई देगा।

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