अनोखा तीर, हरदा। मप्र, लेखक संघ जिला इकाई हरदा की माह अक्टूबर की शारदोत्सव साहित्य गोष्ठी स्थानीय गौर छात्रावास में आयोजित की गई। गोष्ठी का प्रायोजन संघ के मार्गदर्शक और आजीवन सदस्य बृजमोहन अग्रवाल अग्रज द्वारा किया गया। कार्यक्रम की अध्यक्षता इकाई के अध्यक्ष जीआर गौर द्वारा की गई। कार्यक्रम के मुख्य अतिथि प्रोफेसर मेजर डॉ. प्रभुशंकर शुक्ल रहे। इस अवसर पर हिंदी के विद्वान व्याख्याता डॉ. राजेंद्र मंडलोई विशेष रूप से उपस्थित रहे। वरिष्ठ गीतकार रतनसिंह सोलंकी की सरस्वती वंदना से कार्यक्रम का शुभारंभ हुआ। डॉ. राजेंद्र मंडलोई द्वारा आदिकवि भगवान वाल्मीकि के व्यक्तित्व और कृतित्व पर संक्षिप्त प्रकाश डालते हुए संस्कृत के प्रथम महाकाव्य रामायण के अनेक श्लोकों व छंदों को उद्धृत करते हुए बताया कि आदिकवि रचित रामायण मनुष्यत्व के उच्चतम मूल्यों का प्रतिपादन उत्कृष्टतम शैली में करती है और यही साहित्य का लक्ष्य और सार्थकता है। गोष्ठी में बालमुकुंद ओझा ने- जय दे मां, यश दे मां, सुर दे मां, लय दे मां.., रतन सिंह सोलंकी ने- तमस ताप धरती का हरने, श्वेत किरण की सेना आई, नरेन्द्र वर्मा ने- तोल-मोल कर बोल रे मनुवा, रमेश भद्रावले ने- आशा आगे की ओर, स्मृति पीछे की ओर नजर डालती है, डॉ. अरविंद शुक्ला ने- पंख बनू मैं उस पंछी के जिसे गगन की चाह रहे, बृजमोहन अग्रवाल ने- रावण ही रावण को जला रहा है, इस तरह अपना रावणत्व छिपा रहा है। जयकृष्ण चांडक ने-देह का रखरखाव जारी है, मौत से पर बचाव जारी है, सावन सिटोके ने- ओ पूनम के चांद आज तुम घर आना, स्वच्छ चांदनी कुछ मु_ी में भर लाना, तारिक रहमत ने- देखता रहता हूं मैं राह रोज ही उस की, डाकिया आ के इधर रोज गुजर जाता है, बालकवि दुहित गौर ने ज़िन्दगी में नफरत को जगह कभी न मिले, मदन व्यास ने सफर के दर्द का कुछ इस तरह ख्याल आया, पहले सिरकम्बा, फिर धुरगाड़ा, फिर गहाल आया, मंसूर अली मंसूर ने झिलमिलाने लगी ये शरद पूर्णिमा, दिल लुभाने लगी ये शरद पूर्णिमा, लोमेश गौर ने- समझें जरा तो अर्थ-सी लगती है कविता, हिम्मत जरा दिखे तो समर्थ-सी लगती है कविता। कार्यक्रम के सूत्रधार त्रिलोक शर्मा ने- बाबू बनने का लगा जब पैरों को रोग, दिखे शहर के रोड पर पगडंडी के लोग, जीआर गौर ने पापा हिंदी स्कूल में क्यों पढ़ात हैं, अंग्रेजी भाषा खाए जात है, सुभाष सिटोके ने- धवल चांदनी बिखर रही है, प्रकृति-सुंदरी निखर रही है, अंधकार के राज्यपाल को, यह सुख-शोभा अखर रही है…रचना से शरदोत्सव के आनंद को चरमोत्कर्ष पर पहुंचाया। अंत में गोष्ठी के प्रेरणास्त्रोत, संघ के आजीवन सदस्य, हिंदी के विशिष्ट विद्वान और वरेण्य साहित्यकार श्रद्धेय मेजर डॉ. प्रभुशंकर शुक्ल ने- पैरों तल रौंदी हुई बोली सूखी घास। आंखों तिनका देखकर अब क्यों हुआ उदास। हंस पूजे हाथी पूजे अश्व पूजे घर-द्वार। अब तो गिरगिट पूज रहे अथवा रंगे सियार। दोहों से गोष्ठी का समापन करते हुए आयोजकों का साधुवाद और उपस्थितों का आभार व्यक्त किया।
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