खातेगांव में दिखा दुर्लभ पीला पलाश  

 

अनोखा तीर, नेमावर। पुष्पित पलाश वृक्ष के संबंध में महाकवि कालिदास लिखते हैं- ‘बसंत काल में पवन के झौकों से हिलती हुई पलाश की शाखाएँÓ वन की ज्वाला के समान लग रहीं थीं। पलाश का वृक्ष अधिकतर केसरिया गुलाबी रंग के है। इसके अलावा कुछ विशेष क्षेत्र में सफेद पुष्पों और पीले फूलों वाला पलाश भी पाया है। वैज्ञानिक दस्तावेजों मे गुलाबी, पीला व सफेद तीन ही प्रकार के पलाश का वर्णन मिलता है। पीले पुष्पों वाला पलाश का वैज्ञानिक नाम ‘ब्यूटिया पार्वीफ्लोराÓ है। ‘ब्यूटिया सुपरबाÓ और ‘ब्यूटिया पार्वीफ्लोराÓ नाम से इसकी कुछ अन्य जतियाँ भी पाई जाती हैं। देवास जिले की खातेगांव तहसील से 38 किमी दूर वन अंचलों के लगे गांवों से सामाजिक कार्यकर्ता योगेश मालवीया व सहयोगी नौशाद खान द्वारा वन अंचलों में पलाश वृक्ष की जानकारी और महत्व से संबंधी जानकारी ली गई। समुदाय विजिट के दौरान सागोनिया व उतावली गांव के बीच पहाड़ी के किनारे पीला पलाश वृक्ष पाया गया। गांवों या संबंधित विभाग को भी इसकी जानकारी संभवत: नहीं थी। मप्र में पीला पलाश वृक्ष खरगोन, खण्डवा जिले में है। इसी कड़ी में देवास जिले के खातेगांव ब्लाक में पीला पलाश वृक्ष पाने का अवसर मिला। बुजुर्गों के अनुसार चालीस पचास साल पहले छिंदवाड़ा, मंडला, बालाघाट और चित्रकूट के जंगलों में दिखाई दिए थे, लेकिन वे खत्म हो गए। सफेद पलाश कोरबा के जंगल उदयपुर में आयुर्वेद कॉलेज में एक पाया गया।

ऐसा माना जाता है कि इस फूल का पलाश नाम इतिहास प्रसिद्ध ‘प्लासी के युद्धÓ के कारण पड़ा है। पलाश वृक्ष को स्थानीय भाषा में खाकरा कहते है। हिन्दी में पलाश, ‘परसाÓ, ‘ढाकÓ, ‘टेसूÓ, छूल किंशुक, केसू, जंगल की ज्वाला, हरा सागौन, तोता का पेड़, जंगल की आग ये भी इसी वृक्ष के नाम है। इसके अलावा गुजराती में ‘खाखरीÓ या ‘केसुदोÓ, पंजाबी में ‘केशुÓ, बांग्ला में ‘पलाशÓ या ‘पोलाशीÓ, तमिल में ‘परसुÓया ‘पिलासूÓ, उड़िया में ‘पोरासूÓ, मलयालम में ‘मुरक्कÓ यूमÓ या ‘पलसुÓ, तेलुगु में ‘मोदूगुÓ, मणिपुरी में ‘पांगोंगÓ, मराठी में ‘पलसÓ और संस्कृत में ‘किंशुकÓ नाम से जाना जाता है। पलाश को संरक्षित करने का कोई प्लान ना होने और जागरूकता के अभाव में पेड़ खत्म होते जा रहे हंै।

पलाश की पत्तियां : इसके पत्ते बड़े और तीन की संख्या में एक ही वृंत पर निकलते हैं। माना जाता है कि हिन्दी का प्रसिद्ध मुहावरा ”ढाक के तीन पातÓÓ इसी से निकला है। पत्ते सामने से गोल, ऊपर की ओर रोम रहित, पतले चिकने, मजबूत और त्रिकोणाकार होते हैं। नीचे की ओर इनमें नसें देखी जा सकती हैं। पलाश वृक्ष का फूल बसंत में खिलना शुरू करने वाला यह वृक्ष गरमी की प्रचंड तपन में भी अपनी छटा बिखेरता रहता है। ऋतुराज बसंत संत के स्वागत का प्रमुख श्रेय रंग से आवृत्त पलाश वृक्ष को ही जाता है।

पलाश की कलियां : काले-भूरे रंग की घनी और त्वचा मखमली होती हैं। इनके बाह्यसंपुट का रंग जैतून की तरह हरे रंग से लेकर भूरे रंग तक अनेक छवियों में दिखाई देता है। प्रत्येक फूल में पाँच पंखुरियाँ होती हैं।

फूलों से पराग व प्रकृति रंग : फूलों का रस जिसे पराग कहां जाता है वह मधु मक्खी और पक्षियों के लिए भोजन के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इन वृक्षों पर अनेक दुर्लभ पक्षी वह जीव दिखाई देते हैं।

पलाश वृक्ष की जड़: इसकी जड़ों में ग्लूकोज, ग्लीसरीन, ग्लूकोसाइड और सुगंधित यौगिक मिलते हैं। पलाश की जड़ों से रस्सियां पुताई के लिए जड़ों से कूची(ब्रश)बनाई जाती है जो पुताई के काम आता है। पलाश की जड़े जमीं की नमी और मिट्टी संरक्षण की अहम भूमिका निभाती है।

पलाश वृक्ष की लकड़ी : पलाश की लकड़ी से शादी विवाह में पूजा हेतु मानक खम्भ बनाया जाता है। इसके अलावा पूजा या हवन आदि में सूखी टहनियों का उपयोग करते हैं।

पलाश वृक्ष बीज तथा फलियाँ : पलाश की फली चमकीली-पतली-चपटी, परंतु संधि स्थल पर मोटी होती है। छोटी फली पर बहुत से रोएँ होते हैं, जो उसकी त्वचा को मखमली बनाते हैं। पलाश के बीजों को पहाड़ियों पर रोपण करवाया जाना जरूरी जिसके परिणाम स्वरूप असंख्य पौधे तैयार होगें और मिश्रित वनों में अपनी महती भूमिका निभायेंगे। आप भी पलाश के महत्व को समझें जो उपलब्ध है उसी का रोपण करवाएं उसी की संख्या बढ़ाए।

योगेश मालवीया अनुसार पीला पलाश के पेड़ मप्र के एक दो जिले में गिनती के वृक्ष हैं। ऐसी स्थिति में पीले पलाश के बीज संरक्षित कर जंगल में अन्यत्र जगह विकसित करने की जरूरत है।

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