ये ‘दागÓ कैसे अच्छे हैं?
एआई बताता है कि टी ज्वाइंट में आई दरारें पुल की सुरक्षा को जोखिम में डाल सकती हैं, लेकिन मप्र लोक निर्माण विभाग के अपर मुख्य सचिव नीरज मंडलोई ऐसा नहीं मानते। उनके मुताबिक, जबलपुर के नवनिर्मित फ्लाई ओवर में आईं दरारें अच्छी हैं। अलबत्ता इस बात का खुलासा उन्होंने नहीं किया कि दरारें किस लिहाज से अच्छी हैं?
बहरहाल, उनके इस बयान और जांच के बाद उद्घाटन से पहले ही उजागर हुए इस मामले पर पर्दा पड़ गया है। अब पुलों का क्या? ये तो बेवक्त पहले भी टूटते रहे हैं।
साल 2021 में दतिया, शिवपुरी व भिंड के 5 नए पुल महज 24 घंटे में सिंध में समा गए थे। पिछले सितंबर में बिछिया की सुपरन नदी पर बना पुल भी नहीं रहा। संस्कारधानी में बने फ्लाईओवर की बात अलग है। यह देश का पहला पुल है, जो किसी रेलवे स्टेशन के ऊपर से गुजरता है। पुल टूटने पर नदी, नाले तो फिर भी बहाकर पार लगा देते हैं। ट्रेनों के मामले में गुंजाइश कम ही रहती है।
भाजपा मुख्यमंत्रियों ने तोड़े मिथक
मप्र के इतिहास में कांग्रेस को कभी सिंहस्थ आयोजन का अवसर नहीं मिला। साल 1956 में एक नवंबर को कांग्रेस की सरकार बनने से पहले ही अप्रैल-मई में सिंहस्थ हुआ। वर्ष 1968 के दूसरे सिंहस्थ का आयोजन डॉ गोविंद नारायण सिंह के नेतृत्व वाली संविद सरकार में तो साल 1980 का तीसरा सिंहस्थ राष्ट्रपति शासनकाल में हुआ। वर्ष 1992 में मुख्यमंत्री सुंदरलाल पटवा थे तो साल 2004 में सुश्री उमा भारती, साल 2016 में शिवराज सिंह। 2028 का अगला सिंहस्थ डॉ.मोहन यादव के नेतृत्व में कराए जाने की तैयारी है। मुख्यमंत्री के उज्जैन में रात रुकने और सिंहस्थ व सीएम पद से जुड़ा मिथक तो पहले ही डॉ.यादव व पूर्व सीएम शिवराज तोड़ चुके हैं।
भूमिका बनाने की तैयारी
कहते हैं, सरकार एक हाथ से देती है तो दूसरे से वापस ले लेती है। ऐसा ही कुछ मप्र की प्रस्तावित नई आबकारी नीति को लेकर भी कहा जा रहा है। सरकार ने हाल ही में स्व प्रेरणा से प्रदेश के 17 धार्मिक नगरों में शराब विक्रय पर प्रतिबंध की बात कही। इस फैसले ने कई को चौकाया। जानकारों की माने तो यह तैयारी उस विरोध को मंद करने की है जो प्रस्तावित नई दुकानों को लेकर हो सकता है। पिछली सरकार में ऐसा हो चुका है। जब अपनों के ही विरोध के बाद कदम वापस खींचने पड़े थे। प्रस्तावित नीति में भी ग्रामीण इलाकों में 211 नई दुकानें खोलने का सुझाव है। इस पर अमल हुआ तो विरोध तय है। ऐसे में अभी से भूमिका बनाने में हर्ज क्या?
गैरों से ज्यादा अपनों का सितम
सियासत में विरोधियों से ज्यादा खतरा विघ्न संतोषियों से होता है। इनमें ज्यादातर अपने ही होते हैं। सत्तारूढ़ दल भी इससे अछूता नही। बड़ी चुनौती इंदौर व सागर से है। एक सरकार से खफा है तो दूसरे संगठन से। पहले का हल तलाशने चित्रकूट में बैठक करनी पड़ी। दूसरे का निदान, अभी दूर की कौड़ी बना हुआ है। दरअसल, मजबूरी में ही सही, लेकिन सरपरस्ती अभी किसी और को हासिल है। हालांकि, सरगना का तमगा पाकर विवादों में वे भी हैं।
अंबेडकर पर रार
देश की सियासत में संविधान निर्माता डॉ.भीमराव अंबेडकर अचानक अहम हो गए हैं। संसद में केंद्रीय गृह मंत्री का एक बयान और इसे लेकर बीजेपी के बैकफुट पर आने से कांग्रेस को जैसे मुद्दा मिल गया। इसे संजीवनी जान पार्टी ने जय भीम, जय बापू व जय संविधान यात्रा का ऐलान कर डाला, लेकिन यह कार्यक्रम ऐसी घड़ी में बना कि यात्रा की अब तक तीन बार तारीख बदली जा चुकी है।
डॉ.अंबेडकर की जन्मस्थली महू में पहले जहां यात्रा का समापन होना था, अब वहां आगाज होने से इसे सफल बनाने की जिम्मेदारी मप्र कांग्रेस पर आन पड़ी। दोनों ही दलों में खुद को बाबा साहेब का बड़ा अनुयायी होने की होड़ है। इसके बीच एक-दूसरे के मामूली से मामूली नुक्स भी तलाशे जा रहे हैं।
अपनों की खातिर
पूर्व सीएम व सांसद दिग्विजय सिंह ने हाल ही में राजधानी में फिल्म जंगल सत्याग्रह का प्रदर्शन कराया। दर्शक जुटाने उन्होंने कई भाजपा नेताओं को फिल्म देखने का न्योता भी दिया। इसके सियासी मायने तलाशने वालों के हाथ ज्यादा कुछ लगा नहीं। बताया जाता है कि फिल्म प्रदर्शन के पीछे असल मंशा इसके कलाकारों को प्रमोट करने की ही रही। इसमें दिग्विजय के कुछ अपने भी हैं। कांग्रेस नेता की यह खासियत, कि वे जिन्हें अपना मानते हैं, उनके पीछे वह पूरी ताकत से खड़े होते हैं। फिर वह फिल्म का प्रमोशन ही क्यों न हो? दरअसल, फिल्म में कांग्रेस नेता सुखदेव पांसे व धरमूसिंह सिरसाम ने भी अभिनय किया है।
कांग्रेस को मिली तंज की काट
बेटिंग कांड के बाद से इंदौर के समीकरण सुधरने के नाम ही नहीं ले रहे हैं। हाल ही में पार्षद पुत्र पिटाई केस ने इस मामले में आग में घी का काम किया। बात पार्टी नेतृत्व तक पहुंचने पर चाबी ऐसी कसी गई कि सभी जिम्मेदारों को अपने दायित्व याद आ गए। वर्ना 5 दिन तक तो सभी चुप्पी साधे तेल व तेल की धार मापते रहे। वहीं, रंगबाज पार्टी को उसकी जगह दिखाते रहा। देर आए, दुरुस्त आए वाले अंदाज में रंगबाज का अब निष्कासन भी हो चुका है और पॉक्सो एक्ट में केस भी। इस केस में किसी का सियासी फायदा हुआ तो वह है कांग्रेस। उसे पार्टी गई तेल लेने की काट मिल गई।
एक कदम आगे, दो कदम पीछे
‘समरथ कहुँ नहिं दोषु गोसाईं…।Ó श्री रामचरित मानस की इस चौपाई में तुलसीदास जी ने समरथ यानी सामर्थ्यवान सूर्य, अग्नि व गंगाजी को बताया लेकिन मप्र में जांच एजेंसियों ने इसे धनपति व बाहुबलियों से जोड़ लिया।
अब बंडा के पूर्व विधायक के प्रकरण को ही लीजिए। क्या कुछ नहीं मिला? घर में ही ‘जूÓ बनाए मगरमच्छ पाले हुए थे। दीवारों पर शेर, बाघों की खाल व इनसे बनी कलाकृतियां टंगी मिली, लेकिन वन विभाग है कि कार्यवाही के नाम पर एक कदम आगे बढ़ता है तो दो कदम पीछे हट रहा है।
क्यों बनाया था हौव्वा?
रातापानी अभयारण्य को लेकर मुख्यमंत्री मोहन यादव ने खुलासा किया कि विभागीय अफसरों ने सेंचुरी घोषित न करना पड़े इसके लिए इस केस को हौव्वा बनाकर रखा था। पुराने जिम्मेदार लोग भी इससे डरे हुए रहे। उन्होंने इसे समझा और पलभर में ही फैसला लेकर रातापानी को अभयारण्य घोषित कर दिया।
दरअसल, डर का हौव्वा खड़ा करने की एक बड़ी वजह वे अवैध क्रशर्स संयंत्र व बेजा कब्जे भी हैं, जिनसे एक बड़ी आय इनके संरक्षकों को होती रही है। रातापानी भले ही अब अभयारण्य बन गया लेकिन हौव्वा खड़ा करने की ये वजह तो अब भी कायम हैं।
किसे मिलेगा अध्ययन का लाभ?
खबर है कि स्कूल शिक्षा विभाग के एक दल ने ही हाल ही में सिंगापुर का अध्ययन दौरा किया। इनमें कुछ पदनाम बदलकर तो कुछ रिटायरमेंट की कगार पर बैठे अफसर शामिल हुए।
बड़ा सवाल यही कि जो दो-चार महीने में रिटायर होने वाले हैं वे अपने अनुभव का लाभ किसे देंगे? हालांकि विभाग में इससे भी बड़े कारनामे होते रहे हैं और जिम्मेदार गांधीवादी शैली अपनाए हुए हैं। स्कूल शिक्षा ही नहीं,परिवहन का भी यही हाल है।
तहसीलदारों ने दिखाई ताकत
राजस्व महाअभियान के बीच तहसीलदार व नायब तहसीलदारों की हड़ताल के ऐलान ने सरकार को चिंता में डाल दिया। जिला कलेक्टरों को मामले को संभालने के निर्देश मिले। इसके बाद, हड़ताल की बात आई-गई हो गई, लेकिन हड़ताल के पीछे जो बड़ी वजह बताई गई,वह विभागीय मंत्री का व्यवहार। बताया जाता है कि इछावर की घटना तो महज एक बानगी है। राजस्व अधिकारियों की नाराजगी के पीछे पूर्व के घटनाक्रम भी रहे हैं। इनमें हुजूर तहसीलदार को फटकारने मंत्री जी का अचानक भोपाल कलेक्टोरेट पहुंचना भी शामिल है। कारण और भी बताए जा रहे हैं, जिनसे विभागीय अमला परेशान है।
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