–चौ.मदन मोहन समर
कोर्ट ने कहा पदोन्नति में आरक्षण नहीं होना चाहिए। यह व्यवस्था बन्द करो। जिन्हें आरक्षण नहीं था वे बल्लियों उछल गए, जिन्हें है वे बिलबिला गए। कुछ के लिए संविधान खतरे में पड़ गया तो कुछ के लिए अब अच्छे दिन आ गए, कोर्ट ने जो कह दिया पदोन्नति में आरक्षण खत्म करो। आनन-फानन कुछ उत्साही लाल मिडिल क्लास साहबों और कर्मचारियों अधिकारियों ने स्पाक्स का गठन कर लिया। श्रेय की होड़ मच गई। बड़े साहब ने खम ठोक कर गर्जना कर दी मेरे रहते कोई ‘माई का लालÓ आरक्षण खत्म नहीं कर सकता, इतना सुन कुछ भाई लोग तो माई के लाल बन लँगोट लगा आए और बड़े जोर से दहाड़े हैं माई के लाल देखते हैं कैसे नहीं मानोगे। भाई लोगों को पता ही नहीं होगा कि यह भारत की कोर्ट व्यवस्था है जिसमें पड़पोते तक तो मामले को खींचा जा सकता है सो बड़े साहब ने भी वही किया।
मंझले कोर्ट की शिकायत लेकर बड़े कोर्ट के पास चले गए सरकार की तरफ से और कह दिया सरकार की नाक बचाने करोड़ो की फीस लगे तो लग जाए पर फैसला नहीं होना चाहिए। फिर क्या था, सरकारी काले कोट उतर पड़े अखाड़े में मालिश-वलिश कर के। खेल शुरू हो गया। नौ साल तो बीत चुके हैं अब तक। जैसा कि होना था पेशी पड़ी, फिर पेशी पड़ी, फिर पेशी पड़ी और हर बार बिना सुनवाई के आगे बढ़ी और अब तो पेशी काया पेशकर ही नहीं बढ़ रहे।
बड़े साहब सरकार में थे, माई के लाल जमीन पर। चंदा-वंदा हुआ और लड़ाई की ठानी लेकिन उससे क्या होना था। सरकार तो सरकार होती है। सुनवाई हुई तो इस बात पर कि नागराज जी को सुनकर यह फैसला देना चाहिये था य नहीं, सो संविधान पीठ बिठाओ, भाई पीठ भी बैठ गई। लेकिन पेशी, पेशी और पेशी हर पेशी आगे बढ़ी। आखिर में पीठ ने कह दिया भाई जो सुन रहा है उसे ही सुनने दो। संविधान पीठ की जरूरत नहीं। ये अलग बात है इतना कहने में कई महीने लग गए। बड़े साहब खुश। चलो अब फिर से ककहरा होगा तब तक विधानसभा पूरी हो जाएगी। नई में नई देखेंगे।
इधर स्पाक्स में सरकारी मलाई खाने के बाद पुनर्वास से दूर कुछ पिटे मोहरे मुंह में लार लिए मुंगेरीलाल के सपनों पर सवार हो आ गए, कहने लगे सरकार हम बनाएंगे, हमारे बड़े साहब बनेंगे या हमारे दम पर बनेंगे। उन्हें लगा कि मायावती के सवर्ण संस्करण बनने का मौका है। सो उन्होंने माई के लालों को लालीपाप दे दिया। अब कर्मचारी अधिकारी तो चुनाव लड़ नहीं सकते थे, जन्मजात मोहरे और वो भी प्यादे, कर्मचारियों को लगा हमारे पुराने वजीर हमे भी मलाई खिलाएंगे सो कोर्ट में मामला लटका रहे। अच्छा मुद्दा है विधान सभा तक तो। इसी वैतरणी से हमारी पौ बारह हो जाएगी।
भाई हमने यानि मैंने तब भी इन्हें समझाया भाइयों चुनाव चक्रम छोड़ो कोर्ट में अपना पक्ष रखो। लेकिन वहाट्सएपीए माई के लालों ने व्हाट्सएप पर ही अपनी स्पाक्स सरकार भी बना ली, बंगले और गाड़िया तो छोड़िए ओएसडी तक नियुक्त कर लिए। हमने कहा कि जमानतें नहीं बचेंगी, मगर भाई लोग कहाँ मानने वाले थे। दिमाग लगाकर स्पाक्स के ‘कÓ को धीरे से कर्मचारी की जगह कल्याण कर दिया। बस यही कल्याण हुआ कर्मचारी का।
उधर दिल्ली में बिल्ली के भाग से छींका छूटा और एट्रोसिटी पर हाय तौबा मच गई। स्पाक्स को लगा अपना तंदूर तप गया। जनता को कर्मचारियों से क्या मतलब चंबल वाले एट्रोसिटी पर भड़क गए और नोटा व स्पाक्स की तरफ नारे लगाने लगे। हमने फिर कहा ये तारणहार नहीं, नाव के छेद हैं आखिरी रात में गला तर होते ही भर जाएंगे।
बड़े साहब को लगा कि माई के लाल गलत कह दिया तो वे चुप बैठ गए। लेकिन अटक गए सारे कर्मचारी जो बच्चों को रोज बताते अब प्रमोशन होगा कल प्रमोशन होगा और यह कहते कहते अब तक दो लाख से ज्यादा बिचारे कोस-कास कर रिटायर हो गए। बड़े साहब क्या करते कोर्ट में अटकाना जरूरी था और कुछ समझाना मजबूरी था। सो दो साल उम्र बढाने का झुनझुना थमा दिया। झुनझुना बजाते सारे माई के लाल खुश हो गए।
अब यह प्रमोशन में आरक्षण कलेक्टर एसपी से नौकरी की शुरुआत करने वालों के लिए तो है नहीं, सो वल्लभ भवन को क्या पड़ी है वो वल्लभ भाई जैसा विलीनीकरण कराए। तो लो लगाओ नारे, और घर जाओ।
इलेक्शन होना थे सो हो गए। स्पाक्स निपट ली सारे वेदी, त्रिवेदी, आणे घाणे, ठाकुर वाकुर, कुट पिट लिए। बड़े साहब ने खूब दम टेकी तो रस्सी सात इंच कम रह गई। और उधर दूसरे पाले में भी दो इंच ओछी। दिल्ली को लगा बिल्ली जीभ लपलपा रही है तो दस टुकड़े तोड़ कर टपका दो लेकिन उससे क्या होगा। इधर नई सरकार भी बतौले बाजी कर खुद ही निपट ली तो कर्मचारियों को क्या खाक देखती? बाइस इंच रस्सी के थेगड़े चिपकाए बड़े साहब ने फिर वल्लभ भवन का पांचवां माला संभाल लिया मगर हल न निकालना था न निकलने देना था।
चुनाव में स्पाक्स वालों की मु_ी खुली तो उसमें बैसाखी की क्या कहें आंख कानी करने के लायक तिनका भी नहीं था, सो जगह जगह दुत्कार कर भगा दिए गए जो आज तक कूं-कूं कर घूम रहे हैं, गुर्राना तो खैर छोड़ ही दो।
जो मूल मुद्दा है वह तो कोर्ट में है और कोर्ट कब सुनता है गरीब की जोरू की। कर्मचारी तो बेचारा गरीब की जोरू ही है, उसे सरकार जो दे दे, लेना है, न दे तो खिसियाना है। क्या कर लेगा वह। खुद का वोट तक तो डालने नहीं जाता या तो छुट्टी मनाता है या ड्यूटी बजाता है। बड़े साहब बदल गए। नोटा फोटा निपट लिया। स्पाक्स अभी मरहम पोत रहा है अजाक्स मुस्कुरा रहा है। कर्मचारी दो साल तक झुनझुना लिए बच्चों की तरह मस्त हो फिर कावा (कार्यवाहक) का कहवा पी रिटायर हो रहा है। आगे दिल्ली की तैयारी में नए पुराने बड़े साहब जुटे हैं। कोर्ट में पेशियां पड़ और बढ़ रही हैं। और प्रमोशन ठन ठन गोपाल। वह तो सरकार, सुप्रीमकोर्ट और स्पाक्स में फंसा कराह रहा है। अंजे-पंजे, ऊल-फूल, हाथी-वाथी, साइकिल-वाइकिल सब पत्ते फेंट रहे हैं। जय विधान, जय संविधान। जय हो मध्यप्रदेश।
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