भोपाल

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दिनेश निगम ‘त्यागीÓ

-कॉश, यह फैसला लेने की नौबत ही न आती….!

प्रदेश की मोहन सरकार ने एक बड़ा फैसला लिया। राजधानी के 29 हजार पेड़ों को बचाने के मंत्रियों, अफसरों के लिए बनने वाले बंगलों की योजना को रद्द करने का। प्रदेश के नगरीय प्रशासन मंत्री कैलाश विजयवर्गीय ने इसमें मुख्य भूमिका निभाई। बड़ा सवाल यह है कि आखिर, यह फैसला लेने की नौबत ही क्यों आई? सब जानते हैं कि जीवन के लिए वृक्ष कितने जरूरी हैं। हर नेता पौधे लगाने की बात करता है। फिर भी बड़ी तादाद में पेड़ों को काट कर विकास की योजनाएं बना ली जाती हैं। भोपाल तालाबों के साथ हरियाली के लिए प्रसिद्ध है। यहां आने वाला कोई भी सख्श नेपाल, कश्मीर और शिमला की अनुभूति करता है। राजधानी के इस सौंदर्य पर विकास के ठेकेदारों की नजर लग गई है। पहले स्मार्ट सिटी के नाम पर हजारों पेड़ काटे गए, इसके बाद बीआरटीएस कारिडोर के नाम पर पेड़ों की बलि चढ़ी। फिर मंत्रियों, अफसरों के बंगले बनाने के लिए शिवाजी नगर और तुलसी नगर के 29 हजार पेड़ काटने की योजना बन गई। भला हो क्षेत्र के लोगों का, जिन्होंने पेड़ों को बचाने के लिए चिपको आंदोलन छेड़ दिया। पेड़ों को राखियां बांध कर उन्हें बचाने का संकल्प लिया। अंतत: सरकार झुकी और योजना को रद्द कर दिया। सरकार के फैसले से शहर की सांसें लौटी हैं। इसलिए भविष्य में भी इस फैसले पर डटे रहने की जरूरत है।

‘गिनीज बुकÓ में नाम दर्ज कराना ही पर्याप्त नहीं…

वृक्षारोपण नेक सामाजिक काम है। शिवराज सिंह चौहान मुख्यमंत्री थे तब उन्होंने नर्मदा किनारे एक दिन में इतने पौधे लगवाए कि गिनीज बुक में नाम दर्ज हो गया। चौहान ने खुद हर रोज एक पौधा लगाने का अभियान भी चला रखा था। अब नगरीय प्रशासन मंत्री कैलाश विजयवर्गीय के प्रयास से इंदौर में एक दिन में इतने पौधे लगाए जा रहे हैं ताकि गिनीज बुक में नाम दर्ज हो जाए। वृक्षारोपण जैसे कार्य में गिनीज बुक में नाम दर्ज होना मप्र के लिए गौरव की बात है, लेकिन क्या इतना करना ही पर्याप्त है? क्या रोपे गए पौधों के सर्वाइवल के प्रयास भी इस तरह नहीं होना चाहिए, ताकि वर्ल्ड रिकार्ड बन सके? देखने में ऐसा नहीं आ रहा। शिवराज के कार्यकाल में जितने पौधे लगे थे, यदि वे सब पेड़ बन गए होते तो न ऑक्सीजन का लेवल कम होता, न गर्मी के मौसम में तापमान बढ़ कर 50 डिग्री के नजदीक पहुंचता और न हरियाली का संकट दिखाई पड़ता। इस बार भोपाल में तापमान 46.4 डिग्री तक पहुंचा। समस्या यह है कि कोई भी अभियान तेजी से चलाया जाता है, लेकिन उसे अंतिम पड़ाव तक नहीं पहुंचाया जाता। यही रोपे गए पौधों के साथ हो रहा है। लगाने के बाद उनकी सुध नहीं ली जाती। उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है। तभी उनकी असमय मौत हो जाती है और वे पेड़ नहीं बन पाते। सरकार और समाज को इस ओर ध्यान देने की जरूरत है।

शिवराज के पास करिश्मा दिखाने का एक और मौका…

केंद्रीय मंत्री बनने के साथ पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की नई पारी शुरू हो चुकी है। उन्हें उन विभागों की जवाबदारी मिली है, जो कभी विधानसभा अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर संभाला करते थे। किसान संगठनों का केंद्र सरकार के साथ पंगा चलता रहता है। इसे काबू करना शिवराज के सामने पहली चुनौती है। इसलिए भी क्योंकि इस चुनाव में किसानों की नाराजगी का भाजपा को पंजाब, हरियाणा और उप्र सहित कई जगह नुकसान हुआ है। इसके साथ शिवराज के सामने परीक्षा की एक और घड़ी है झारखंड विधानसभा के लिए इस साल होने वाले चुनाव। उन्हें यहां का चुनाव प्रभारी बनाया गया है। उनके साथ सह चुनाव प्रभारी बनाए गए हैं असम के मुख्यमंत्री हेमंत बिस्वा सरमा। झारखंड में झामुमो के नेतृत्व में इंडिया गठबंधन की सरकार है। झामुमो के प्रमुख नेता और पूर्व मुख्यमंत्री हेमंत सोरन जेल में हैं। इस कारण आदिवासी वर्ग में उनके प्रति सहानुभूति हो सकती है। ऐसे में शिवराज के सामने भाजपा को सत्ता में लाने का करिश्मा दिखाने की चुनौती है। चुनाव की राजनीति में शिवराज को सफल माना जाता है। मप्र में वे लगभग 17 साल मुख्यमंत्री रहे हैं। 2023 में भी उनके नेतृत्व में भाजपा को अच्छी सफलता मिली है। झारखंड में भाजपा नेतृत्व की उम्मीद पर वे कितना खरा उतरते हैं, यह देखने लायक होगा।

जीतू के सामने पद गंवाने का कितना खतरा…?

लोकसभा चुनाव में सभी 29 सीटें हार जाने के बाद कांग्रेस में एक वर्ग ने जीतू को पद से हटाने की मुहिम छेड़ रखी है। इस चुनाव में कांग्रेस उन क्षेत्रों में भी हारी, जहां उसने विधानसभा चुनाव में जीत दर्ज की थी। लिहाजा, पूर्व नेता प्रतिपक्ष अजय सिंह और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष अरुण यादव जैसे बड़े नेता प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष तौर पर जीतू को हटाने की मांग कर चुके हैं। कुछ अन्य नेता भी सोनिया गांधी सहित अन्य केंद्रीय नेताओं को पत्र लिखकर जीतू को हटाने की मांग कर रहे हैं। बड़ा सवाल है कि क्या कांग्रेस नेतृत्व जीतू को हटाएगा? अधिकांश का जवाब है, बिल्कुल नहीं। जीतू ने पहले ही लोकसभा चुनाव में हार की जवाबदारी लेकर इस्तीफे की पेशकश कर दी थी। नेतृत्व ने उनसे काम करते रहने के लिए कहा है। राहुल गांधी कह चुके हैं कि जिसे पार्टी छोड़कर जाना है चला जाए, हमें संघर्ष करने वालों की जरूरत है, पद की चाह रखने वालों की नहीं। जीतू को राहुल कैम्प का माना जाता है। इसलिए उनके हटने की संभावना न के बराबर है। नेतृत्व से मिली हरी झंडी का नतीजा है कि वे प्रदेश कांग्रेस मुख्यालय का वास्तु के हिसाब से कायाकल्प करा रहे हैं। हालांकि इससे कांग्रेस के कुछ वरिष्ठ नेताओं में नाराजगी बढ़ रही है। ऐसे में जीतू को हर काम सावधानी से करना होगा, क्योंकि कांग्रेस की हालत पहले से नाजुक है। यह नाराजगी पार्टी पर और भारी पड़ सकती है।

सपा को फिर सताने लगी मध्य प्रदेश की याद…

उत्तरप्रदेश में जब-जब सपा- बसपा की स्थिति मजबूत रही या वे सत्ता में रहे, तब-तब इन दलों के कुछ न कुछ विधायक मध्य प्रदेश की विधानसभा में चुन कर पहुंचते रहे हैं। उप्र में जब से भाजपा मजबूत और सपा-बसपा कमजोर हुए तब से मप्र में इनकी स्थिति नाजुक है। विधानसभा के 2023 के चुनाव में इनमें से किसी दल का खाता तक नहीं खुला। लोकसभा के इस चुनाव में सपा ने उप्र में अच्छा प्रदर्शन किया है। उसने 80 में से 37 सीटें अकेले जीतीं और सहयोगी कांग्रेस के साथ 43, अर्थात भाजपा को आधे से नीचे धकेल दिया है। इस प्रदर्शन के साथ सपा नेतृत्व को मप्र की याद फिर सताने लगी है। उप्र में अखिलेश ने इस बार यादवों के साथ मुस्लिम और अन्य पिछड़ी जातियों का तालमेल बैठा कर जीत हासिल की है। यही प्रयोग वे मप्र खासकर बुंदेलखंड और विंध्य अंचल में करने की तैयारी में हैं। इसके लिए मप्र में किसी सक्षम यादव नेता की तलाश प्रदेश अध्यक्ष बनाने के लिए की जा रही है। इसके लिए पूर्व मंत्री व पूर्व सांसद लक्ष्मी नारायण यादव के पुत्र सुधीर यादव का नाम चर्चा में है। सुधीर 2023 में बंडा विधानसभा क्षेत्र से आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़े थे और लगभग 25 हजार वोट लेने में सफल रहे थे। तब से वे भाजपा से निष्कासित हैं। बंडा से एक बार वे उमा भारती की भाजश से भी चुनाव लड़ चुके हैं। बदले हालात में वे सपा से जुड़ सकते हैं।

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