कब बदलेगी हरदा की तकदीर और तस्वीर

 

अनोखा तीर, हरदा। बड़े अरमान से रखा था बलम जिले की दहलीज पर पहला कदम, सोचा था तहसील से जिले का स्वरुप धारण करने के बाद तकदीर भी बदलेगी और तस्वीर भी। देखते ही देखते आज उस दिन को २५ वर्ष बीत गए। यह जिला वही होशंगाबाद जिले की एक तहसील भर है जिसे कभी एक एसडीएम और एक डीएसपी संभाला करते थे। साल में ऐसे कम ही अवसर आते थे जब ९० किलोमीटर दूर से चलकर कलेक्टर-एसपी यहां आते थे। जिला बना तो अधिकारियों की फौज पदस्थ हो गई। आज तीन आईएएसी, एक आईपीएस, दो आईएफएस और आधा दर्जन से अधिक डिप्टी कलेक्टर, डीएसपी रेंक के अधिकारी सहित लगभग ३२ विभागों के प्रथम श्रेणी के अफसर यहां पदस्थ है। इस सबके बावजूद न तो हरदा की सेहत सुधरी न ही तकदीर और तस्वीर बदली। राजनैतिक दृष्टि से जिन हाथों को क्षेत्र की जनता ने जब-जब भी अपनी तकदीर लिखने का जिम्मा सौंपा उन्होंने खुद की सेहत तो सुधार ली, लेकिन हरदा के मर्ज का कोई इलाज नहीं किया। हमने उन सूरतों को भी देखा है जो कभी अपनी जरुरतों के लिए दूसरों के मोहताज हुआ करते थे। लेकिन राजनीति के माध्यम से जनता का भरोसा हासिल कर जैसे ही पदासीन हुए तो उनकी सूरत भी बदल गई और सीरत भी। इन बीते २५ वर्षों में हमने प्रदेश के कई शहरों को तेजी से विकास की सरपट दौड़ दौड़ते देखा है। लेकिन हम दूसरों के विकास को देखकर ही उम्मीद लगाते रहे कि एक दिन हमारा भी ऐसा ही विकास होगा। वर्षों से जिले में रोजगार मुहैया कराने के लिए कृषि आधारित उद्योग लगने के सपने दिखाए जाते रहे और हम भोले-भाले लोग उसे सही मानकर देखते रहे। आज भी देख ही रहे है। २५ वर्ष पहले कलकल बहती जिस अजनाल नदी के पेड़ी घाट पर हम नहाने जाया करते थे उसे साबरमती रिवरफं्रट की तरह विकसित करने और उसके तट पर मुम्बई की जुहू चौपाटी जैसा नजारा हमें उपलब्ध कराने के सपने भी खूब दिखाए गए। आज अजनाल का वह तट इस योग्य भी नहीं बचा है कि हम वहां पहले की तरह जाकर डूबकी लगा सके। जब जिला नहीं बना था तो हमारे पास खेलने के लिए एक नहीं चार-चार मैदान हुआ करते थे। जिला बन गया तो एक ही मैदान शेष रह गया। कहने को तो हमें इंडोर स्टेडियम भी उपलब्ध कराने के सपने दिखाए थे, लेकिन हमारे तो आउटडोर मैदान ही छीन लिए गए। खैर इन सारे कार्यों में भारी भरकम राशि की जरुरत होती है। शायद सरकार के खजाने में हरदा के लिए यह फण्ड उपलब्ध नहीं था। लेकिन जिन कार्यों में आर्थिक बजट की आवश्यकता नहीं वह भला कौन से हो गए। हमने कई शहरों में सकरी गलियों को चौड़े रास्तों में परिवर्तित होते देखा है, लेकिन हमारे शहर की तो लगभग दो दर्जन गलियां ही लापता हो गई। मुख्य मार्ग अतिक्रमण के मकड़जाल में ऐसे फंसे है कि यहां से चारपहिया वाहन लेकर गुजरना ही दुश्वार हो गया है। आवारा मवेशियों की इतनी भरमार हो चली है कि लोग आए दिन उनके कारण दुर्घटना का शिकार हो रहे है। हर बार नगरीय निकाय चुनाव के पहले चुनाव मैदान में उतरने वाले उम्मीदवार शहर सौंदर्यीकरण और शहर में पार्किंग की समस्या के समाधान हेतु अंडरग्राउण्ड तथा मल्टीस्टोरी पार्किंग के सपने भी दिखाते रहे। हम उन पर भी विश्वास करते रहे। लेकिन आज भी पार्किंग की समस्या शहर के मुख्य बाजार क्षेत्रों में बल्कि पूरे शहर में ही यथावत बनी हुई है। वाहवाही तो शहर में बाटनीकल पार्क के नाम पर भी खूब लुटी गई थी, लेकिन वह तो अस्तित्व में नहीं आ पाया बल्कि जो पार्क जिला बनने से पहले अस्तित्व में था वही जीर्णशीर्ण हो चुका है। बहरहाल पिछले दिनों शायद गलती से जिलाधीश उस पार्क में प्रवेश कर गए और उन्होंने तत्काल उसकी सूरत और सेहत बदलने के निर्देश दे दिए। जिलाधीश के आदेश थे, नगरपालिका ने टूटी फूटी फिसलपट्टी, झूले और बच्चों के मनोरंजन के संसाधनों पर रंग रोगन कर दिया। हां, केवल रंग रोगन ही किया है उन्हें सुधारा नहीं गया। नगरपालिका रिकार्ड पर तो शहर में अनेक पार्क है। लेकिन वह कहां है, किस हाल में है, क्या वह जनउपयोग योग्य है भी या नहीं इसे देखने की किसी को फुर्सत नहीं है। शहर की सड़कों पर कभी कभी डामर का लेप लगाया भी जाता है, लेकिन जितने महीने या साल उसके लिए इंतजार करना पड़ता है वह उतने दिन भी नहीं टिक पाता है। आज भी धूल धूसरित सड़कें और उन पर नालियों और फूटी पाईपलाईनों से बहता पानी राहगीरों को पूरे वर्ष होली का अहसास कराते नजर आता है। कभी शहर की सड़कें नीम, आम, इमली जैसे पेड़ों से छायादार हुआ करती थी, आज वह सभी पेड़ नदारद हो चुके है। प्रदेश के मुखिया रहे शिवराज सिंह चौहान ने चाहे दो वर्षों तक लगातार हर दिन पेड़ लगाते हुए पूरे प्रदेश को वृक्षारोपण की प्रेरणा देने का कार्य किया हो, लेकिन इसका हमारे शहर की सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा। ३० वर्ष पहले शहर के मुख्य बाजार का जो निर्माण कार्य शुरु हुआ था और आधा बनकर रह गया था वह आज भी आधा अधूरा ही है। कुल मिलाकर ७ जुलाई १९९८ को जिले बनने के साथ हमने जो विकास के सपने संजोए थे वह सपने ही बनकर रह गए, हकीकत में तब्दील नहीं हो पाए।

कुछ ऐसा कर जाए की हरदा याद करें

वर्तमान में हरदा जिले के प्रशासनिक महकमे में युवा आईएएस, आईपीएस और उनके अधीनस्थ अधिकारियों की बड़ी फौज तैनात है। जिला मुख्यालय है इसलिए सभी विभाग के विभाग प्रमुख भी है। वह अपने-अपने विभागों का कितना दायित्व निर्वहन करते है और उससे जनता को कितना सीधा लाभ पहुंच रहा है मैं इसकी तह में नहीं जाना चाहता। मैनें तो वर्तमान के हरदा जिले को हरदा अनुविभाग के रुप में महज एक आईएएस अधिकारी जो बतौर एसडीएम यहां पदस्थ थे संजय दुबे, मनोज गोविल, अजय तिर्की जैसे एसडीएम के रुप में कार्य करते देखा है। ये ऐसे अधिकारी हुआ करते थे जो एक ही अधिकारी पूरे अनुविभाग का प्रशासनिक रुप से नियंत्रण करते थे और एक एसडीओपी कानून व्यवस्था का। आज दोनों ही विभागों में ऐसे अनेक अधिकारी पदस्थ है उसके बावजूद कल के अनुविभाग और आज के जिले में वह व्यवस्थाएं देखने को नहीं मिलती है। वर्तमान में तीन युवा आईएएस जिले में पदस्थ है। अगर यह चाहे तो इस जिले को प्रदेश का मॉडल जिला बना सकते है। चूंकि इन अधिकारियों को लम्बा प्रशासनिक सफर तय करना है यह तो उनके सेवाकाल की शुरुआत महज है। अगर इस छोटे से जिले में उन्होंने अपनी कार्यकुशलता का परचम लहराते हुए कुछ कर दिखाया तो निश्चित ही उनका प्रशासनिक सेवा का उज्जवल भविष्य यह जिला उनकी सेवा पुस्तिका में चाहे न लिख पाए लेकिन प्रदेश के प्रशासनिक महकमे में अंकित कर सकता है। वर्तमान में लोकसभा चुनाव की आचार संहिता के चलते और शासन स्तर पर योजनाओं के लिए बजट आवंटन की बाध्यताओं के चलते कोई बड़ा कार्य चाहे न कर पाए, लेकिन शहर की सड़कों को अतिक्रमण मुक्त कर यातायात के लिए सुगम बनाने, सड़कों से आवारा पशुओं को पूरी तरह हटाकर होने वाली दुर्घटनाओं से निजात दिलाने, जिले को भिकारीमुक्त जिला बनाने, जनसहयोग से अभियान जनावलंबन जैसे चलाए जाकर शहर के पार्कों, नदी तट तथा प्रशासनिक दफ्तरों के परिसरों की सूरत बदलने का कार्य तो किया ही जा सकता है। उम्मीद है जिले के प्रशासनिक मुखिया इस दिशा में कुछ चिंतन मनन करेंगे।

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