हरदा

इसलिए कलंकित हो रही है पत्रकारिता

प्रहलाद शर्मा

आज मैं किसी ओर पर नहीं बल्कि खुद पर ओर अपनी पत्रकार बिरादरी को लेकर वह कड़वा सच लिखने जा रहा हूं, जिसके कारण गाहे-बगाहे इस बिरादरी पर आरोप लगते रहते हैं। पत्रकार बिक गया, पत्रकारिता अब चाटूकारिता हो गई, फलां पत्रकार फलां नेता, अधिकारी की गोद में बैठ गया, पत्रकार नहीं सत्ता का दलाल हो गया, ऐसे न जाने कितने आरोप प्रत्यारोप पत्रकारों पर चाहें जब कोई भी ऐरा गेरा लगा देता है। पत्रकार ओर समाचार पत्रों पर ऐसे आरोप लगाने वाले भी अधिकांश वह लोग होते हैं जो खुद कभी दो रुपए खर्च कर अखबार नहीं खरीदते, बल्कि हर उस विषय को लेकर अखबार में खबर छपवाना चाहेंगे जिसके लिए खुद भी सामने आने से डरते हैं। विपक्षी दल के नेताओं के खिलाफ खबर छापने वाले अखबार ओर पत्रकार निडर व निर्भीक तथा नहीं छापने वाले बिकाऊ हो जाते हैं। पुलिस, प्रशासन, गुंडे-बदमाशों सब के खिलाफ पत्रकार खबर छापें लेकिन बताने वाले इन महाशयों के नाम गुप्त रखें। सार्वजनिक जनसमस्याएं तो ठीक बल्कि जमीन जायदाद को लेकर भाई भाई के विवाद, पारिवारिक विवाद, खुद की पत्नी, बेटी किसी के साथ भाग जाये तो उसको लेकर भी पुलिस पर दबाव बनाने के लिए अखबार में खबर छपवाने के लिए पत्रकार। अपने नेता को कोई पद मिला तो फोकट की बधाई देने के लिए अखबार, देश के किसी भी कोने में पार्टी का कोई नेता मर गया तो उसे श्रद्धांजलि देने के लिए अखबार, घर के सामने की नाली से लेकर नदी तक साफ कराने के लिए अखबार, उसके बाद भी सरकार की रखैल बन गये अखबार, पत्रकार बिकाऊ हो गये। यह कहना जितना आसान है, एक अखबार निकालना उतना ही कठीन है। आज मैं आपको इसका कड़वा सच बताने की कोशिश कर रहा हूं।
आपके लिए कुछ घंटों बाद जो अखबार एक रद्दी कागज भर रह जाता है, क्या आपको पता है कि वास्तव में उसको तैयार करने में कितने लोगों की मेहनत लगी होती है। क्या एक अखबार जितने में आप खरीदते हो उससे अखबार मालिक को दो पैसे का फायदा होता है ॽ जी नहीं। आज आपके पास जो 16 पृष्ठ का अखबार आता है उसमे लगने वाले कागज के पैसे भी आपके द्वारा दिये जाने वाले दामों से कहीं ज्यादा होते हैं। बाकी छपाई, बंडल बांधने से लेकर उसके लिए विभिन्न स्तरों पर कार्य करने वाले सभी कर्मचारियों का वेतन, छपाई स्थल से आप तक पहुंचाने का भाड़ा ऐसे तमाम प्रकार के खर्च जोड़ने पर उस एक प्रति का लागत मूल्य कागज के स्तर के आधार पर 18 से 20 रुपए होता है। जबकि आपको वह महज तीन-चार रुपए में दिया जाता है। आज मैं लिखित रूप में यह बात पूरे दावे के साथ कह रहा हूं कि हमारे हिन्दुस्तान में सिवाय अखबार के दूसरा ऐसा कोई उत्पाद नहीं है जो बजार में अपने लागत मूल्य से कम पर बिकता हो। आपको याद हो चाहे न हो, आज से 20-25 साल पहले भी अखबार दो रुपए में बिकता था और आज भी अधिकांश अखबार इसी मूल्य पर बिक रहे हैं। 25 साल पहले जब वह 2 रुपए में बिकता था तो उसके बिक्री मूल्य से ही सारे खर्च निकालकर अखबार मालिक को दो पैसे बच जाया करते थे। उस समय अखबारों में विज्ञापन का इतना चलन नहीं हुआ करता था। बल्कि अखबार के दफ्तरों में मार्केटिंग जैसा कोई विभाग ही नहीं होता था। तब पत्रकारिता व्रत के रुप में देशभक्ति और समाज सेवा के उद्देश्य के साथ जूनुन से की जाती थी। मुझे अच्छे से याद है सन् 1980 से 90 के बीच का वह दौर जब मैं खुद सुबह 5 बजे से उठकर अखबार बांटने जाया करता था। उस समय इतने अधिक अखबार भी नहीं हुआ करते थे। सन् 80 में जब मैंने अखबार बांटना शुरू किया था तब सभी अखबार 30 पैसे में आते थे। लेकिन शहर के नौकरी पैसा लोग, व्यापारी वर्ग और वह लोग जो खुद तो पढ़ें लिखे नहीं थे लेकिन अपने बच्चों के लिए अखबार खरीदते थे। सुबह की दैनिक क्रियाओं में अखबार पढ़ना भी शामिल हुआ करता था। तब अखबार में अपने शहर की एक कालम अर्थात 5-10 लाइन की खबर छपना भी चर्चा का विषय हुआ करता था। अफसर नेताओं को अपने खिलाफ खबर छपने पर शर्म आया करती थी। अधिकारी और नेता अपने उपर लगने वाले आरोपों को नाकारात्मक दृष्टि से नहीं बल्कि स्वच्छ समीक्षा के रूप में सुधार करने के लिए अच्छा समझते थे। बाद में अपना स्पष्टीकरण भी जनता के समक्ष प्रस्तुत करने का प्रयास करते थे। पत्रकारों को किसी दल का या किसी का दलाल नहीं समझा जाता था बल्कि सम्मान की दृष्टि से देखते हुए उचित आदर करते थे। जैसे जैसे अखबार का लागत मूल्य बढ़ता गया वैसे वैसे अखबार के दाम भी रहे। इन्ही अखबारों में उस समय के पत्रकारों और साहित्यकारों की खबरें व लेख पढ़कर मैंने भी लिखना सिखा था। सन् 1982 में ही मेरी पहली रचना बराबरी का मुकाबला सुमन सौरभ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी। जिसका प्रोत्साहन पुरस्कार मुझे उस समय 60 रुपए मनीआर्डर द्वारा भेजा गया था। यह मेरी दृष्टि से पत्रकारिता का वह स्वर्णकाल था जब पत्रकार समाज का वास्तविक अर्थ में आईना हुआ करते थे। तब राजनैतिक क्षेत्र में भी अधिकांश नेता मूल्यों और सिद्धांतों की राजनीति करने वाले हुआ करते थे। जैसे जैसे राजनीति का पतन होता गया और नेताओं ने पत्रकारों को अपना महिमा मंडन करने के लिए सरकारी स्तर पर सुविधाएं उपलब्ध कराना शुरू कर दिया। अखबार मालिकों को विज्ञापन के साथ ही अन्य प्रकार के प्रकार की सुविधाएं दी जाने लगी। महानगरीय क्षेत्रों में अखबारों के लिए जमीन, पत्रकारों के लिए आवास इत्यादि सुविधाएं शुरू कर दी गई।
सन् 1990-92 आते आते लगभग अखबारों के मूल्य दो रुपए के आसपास पहुंच गए थे। इस दौरान अखबारों का व्यवसायीकरण होना शुरू हो गया था। अब कुछ अखबारों में संपादकीय, प्रसार, मुद्रण के साथ ही एक ओर नया विज्ञापन विभाग भी होने लगा था। बड़े बड़े उद्योगपतियों से उनके उत्पाद के विज्ञापन लिए जाने लगे, वहीं नेताओं के जन्मदिन व नियुक्ति, मनोनयन पर बंधाई के विज्ञापन शुरू हुए। अखबार छापने की नई नई तकनीकों का इजाफा हुआ, जिससे अखबार स्वेत श्याम से रंगीन हो गये।
सन् 1986 में मैंने भी हरदा तहसील संवाददाता के रूप में दैनिक जागरण अखबार में काम करना शुरू कर दिया था। तब नया नया जोश था तो जिस तीखे तेवरों की खबरें लिखता था उससे मानों सारी समस्याएं खबर छापकर ही हल कर देंगे। उस समय सिद्धांत वादी पत्रकारिता करने वाले श्रद्धेय स्वर्गीय गुरुदेव जी गुप्त दैनिक जागरण के संपादक व मालिक हुआ करते थे। जो समय-समय पर पीठ ठोक कर हौसला-अफजाई भी किया करते थे। लेकिन समय के साथ साथ सबकुछ बदलता चला गया, नहीं बदले तो केवल अखबारों के दाम। बहरहाल कोरोना काल के बाद जरुर कुछ अखबारों ने 4-5 रुपए कीमत कर दी है, लेकिन यह भी अखबार के लागत मूल्य से काफी कम है। आज मैं जो दैनिक अनोखा तीर प्रकाशित कर रहा हूं वह आठ पृष्ठ का अखबार मुझे 7.95 रुपए में सभी खर्चों सहित पड़ता है। अब साहब इस दृष्टि से आप उन अखबारों का लागत मूल्य देख लीजिए जो 16 या 20 पृष्ठ के आ रहे हैं। यह सभी घाटा पूरा करने के बाद अगर दो पैसे कमाना है तो इसके लिए एक मात्र रास्ता है विज्ञापन।
अब खुद ही देख लीजिए कि विज्ञापन कौन देता है और कहां से आते हैं ॽ सरकारी विज्ञापन, नेताओं व उनके समर्थकों के विज्ञापन, उद्योगपतियों तथा बड़े व्यवसाईयो के, ठेकेदारों के तथा अफसरों के माध्यम से लिए जाने वाले विज्ञापन। कुल मिलाकर समाज हित में कार्य करने वाले वह सभी घटक अब अखबारों के विज्ञापनदाता हो गये। जिनके बल पर यह अखबार चल रहे हैं। वैसे तो आजकल सर्वाधिक उन उद्योगपतियों के अखबार है जिनके सरकारों की रहमों करम पर बड़े बड़े उद्योग धंधे चल रहे हैं। ऐसी स्थिति में पत्रकारिता कितनी निष्पक्ष और निर्भीक हो सकती हैं यह आप स्वयं समझ सकते हो। जिस दिन अखबार इन विज्ञापनदाताओं से मुक्त होकर पाठकों के बल पर चलने लगेंगे उस दिन आप इससे निष्पक्ष होने की बिलकुल उम्मीद भी कर सकते हैं बल्कि उसके विरुद्ध आवाज भी उठा सकते हो। वर्तमान में तो इसका काला सच इतना डरावना है कि दिया तले अंधेरे वाली कहावत सर्वाधिक इसी व्यवसाय पर फीट बैठती हैं। लेकिन यह इसकी मजबूरी भी है।आप जिस दिन 8-10 रुपए में 8 ओर 12 पृष्ठ का अखबार खरीदने लगोगे उसी दिन से इन अखबारों की विज्ञापनों पर निर्भरता खत्म हो जायेगी। सच कहूं तो अगर आज हम निडरता के साथ निष्पक्ष पत्रकारिता शुरू कर दें तो अखबार तीन महीने भी नहीं चला सकते, बल्कि स्वयं असुरक्षित होते हुए अकारण ही कितनी ही आफतों को गले लगा बैठेंगे। अब न तो पहले जैसे सिद्धांतवादी अफसर नेता रहे और न ही वैसे पत्रकार। लेकिन इतना फिर भी कहना चाहता हूं कि यह समाज के लिए चिंतन का विषय है। जिस प्रकार हाल ही में केन्द्रीय मंत्री नितिन गडकरी जी ने कहा कि कभी कभी मन करता है कि राजनीति छोड़ दूं, अब राजनीति सेवा के लिए नहीं बल्कि पद और पैसे के लिए की जाने लगी है, ठीक यही भाव मेरे अंदर भी आता है कि अब पत्रकारिता से दूर हो जाना चाहिए। अब यह अपने लायक नहीं रही, या फिर हम इसके लायक नहीं हैं।

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