सत्ता के गलियारे से… रवि अवस्थी

 

काम नहीं आए पैसा और पावर

पैसा और पावर भी वक्त पर काम नहीं आते। यह अल्फाज हैं, प्रदेश के ऊर्जा मंत्री प्रद्युम्न सिंह तोमर , जो उन्होंने बीते माह अपने बड़े भाई के निधन के बाद कहे। तोमर ने समाज को भरोसे में लिया और महंगी रसोई न कर इस पर खर्च होने वाली रकम से एक सरकारी अस्पताल में आईसीयू वार्ड तैयार कराया। हाल ही में यहां महंगी मशीनें स्थापित की गईं ताकि लोगों को समय पर इलाज मिल सके। दरअसल, तोमर अपने बीमार भाई को एयर लिफ्ट कर हैदराबाद ले जाना चाहते थे, लेकिन तमाम प्रयासों के बाद यह संभव नहीं हो सका। जैसे-तैसे, सीएम सहयोग से सरकारी व्यवस्था हुई भी तो वक्त ने मोहलत नहीं दी। दूसरी ओर अब भी ऐसे कई लोग हैं जो पद और पावर का इस्तेमाल कर जमीन व दौलत के लिए अपने जीवन भर की साख को दांव पर लगाने राजी हैं।

पेश की मिसाल

इंदौर के एक उद्योगपति महेश अग्रवाल ने करीब 5 करोड़ कीमत की अपनी जमीन पानी की सार्वजनिक टंकी बनाने के लिए दान कर दी। अग्रवाल का इंदौर के पालदा औद्योगिक क्षेत्र में दस हजार वर्ग फीट का भूखंड है। इस क्षेत्र में हर गर्मी के दौरान पानी की किल्लत रहती है। इसे देखते हुए अग्रवाल ने बिना किसी शोर-शराबे के यह फैसला लिया। एक अन्य उद्यमी ने एमएसएमई मंत्री के सामने यह रहस्य उजागर किया तब अग्रवाल की सदाश्यता सामने आई।

चुन-चुनकर नामों का खुलासा

सौरभ शर्मा केस में अपनी खासी किरकिरी करा चुकी एक जांच एजेंसी, अब देर आए, दुरुस्त आए वाले एक्शन में है। छापे के करीब एक पखवाड़े बाद एजेंसी ने सौरभ के ठिकाने से 45 रजिस्ट्रियां जब्त होने का खुलासा किया। हालांकि, आयकर व ईडी पहले ही काफी कुछ उजागर कर चुकी हैं। बहरहाल, एजेंसियों के मिले-जुले प्रयासों से चेहरों के बेनकाब होने का सिलसिला शुरू हो चुका है।

छापÓ से मुक्ति नहीं

आमतौर पर किसी राजनीतिक दल का प्रवक्ता मीडिया में पार्टी का प्रतिनिधित्व करता है, लेकिन कांग्रेस की बात अलग है। वरिष्ठ नेताओं में यहां सबके अपने-अपने प्रवक्ता रहे हैं। मौजूदा प्रदेशाध्यक्ष ने दस माह बाद इसे एकजाई करने की कोशिश की तो प्रवक्ताओं की सूची जारी करते ही इसे निरस्त करना पड़ा। आरोप लगे कि इसमें कमलनाथ व दिग्विजय समर्थक प्रवक्ताओं की अनदेखी हुई। उम्मीद की जानी चाहिए कि नई सूची छाप से मुक्त होगी।

तो होंगे युवा ही

मप्र भाजपा में जिलाध्यक्ष चुनाव प्रक्रिया अंतिम दौर में है। चयन पात्रता के कई मापदंड तय किए गए हैं। इनमें एक है, अधिकतम साठ साल की उम्र। जानकारों की मानें तो अधिकतम उम्र भले ही तय की गई, लेकिन फोकस युवाओं पर है। लिहाजा एक-दो दिन में घोषित होने वाले जिलाध्यक्षों में ज्यादातर चेहरे युवा ही होंगे। पहली बार, 19 से 20 महिला जिलाध्यक्ष भी चुनी जाएंगी। जिन जिलों में पहले से महिला प्रतिनिधित्व है, वहां पुरुषों को प्राथमिकता रहेगी।

 दूर की कौड़ी

आला अफसर रिटायरमेंट के बाद भी अपने पुनर्वास को लेकर कितना चिंतित होते है। इसे राज्य निर्वाचन आयुक्त पद पर हुई 1987 बैच के रिटायर्ड अधिकारी मनोज श्रीवास्तव की नियुक्ति से समझा जा सकता है। श्रीवास्तव इससे पहले राज्य पुनर्गठन आयोग के सदस्य बनाए गए थे। इस पद से इस्तीफा दिलाकर उन्हें करीब ढाई साल के निर्वाचन आयुक्त बनाया गया। निर्वाचन आयुक्त का कार्यकाल 6 साल या अधिकतम 66 वर्ष तक है। दूसरे क्राइटेरिया में आने से श्रीवास्तव का कार्यकाल अप्रैल 2027 में पूरा होगा। इसके अगले ही महीने वह अधिकारी सेवानिवृत होंगे जो सरकार में सीएस के समान ही प्रभावशाली हैं। कोई छह साल वाला आयुक्त बनता तो फिर इनकी संभावना ही शून्य होती।

लगा रिवर्स गियर

साल 1998 बैच के मप्र कैडर के आईएएस अधिकारी आकाश त्रिपाठी बीते सवा दो साल से केंद्र में प्रतिनियुक्ति पर हैं। मप्र सरकार ने केंद्र को पत्र लिखकर उनकी सेवाएं वापस मांगी। माना जा रहा था कि त्रिपाठी की जल्द मप्र वापसी होगी, लेकिन ऐसा हुआ नहीं। केंद्र ने उन्हें इलेक्ट्रॉनिक्स एंड आईटी से हटाकर ऊर्जा मंत्रालय में अतिरिक्त सचिव का दायित्व सौंप दिया।

महंगा पड़ा नवाचार

मप्र की डॉ.मोहन यादव सरकार ने बीते साल परिवहन विभाग में एडीजी स्तर के दो अधिकारियों को इसलिए पदस्थ किया ताकि निगरानी व्यवस्था दुरुस्त हो और विभाग का ढर्रा सुधरे, लेकिन ऐसा हो न सका। दोनों अफसरों में कभी पटरी नहीं बैठी। आयुक्त डीपी गुप्ता भोपाल से ही तो उमेश जोगा ग्वालियर से विभाग चलाते रहे। तनातनी इतनी बढ़ी कि ठोस तथ्यों के साथ जानकारियां बाहर आने लगी। नतीजा सामने हैं, एक जांच एजेंसी ने हथेली लगाई तो दूसरी सामने आ गई। दूसरी में भी बात बनती न देख, तीसरी की एंट्री हुई। पहले सोना, चांदी व कैश उजागर हुए, अब बारी जमीनों की है।

होशियारी पड़ी महंगी

नंबर बढ़वाने के फेर में अफसरों की ज्यादा होशियारी कई बार मुसीबत भी खड़ी कर देती है। यूनियन कार्बाइड का जहरीला कचरा जलाने के मामले में भी ऐसा ही हुआ। गैस राहत एवं पुनर्वास विभाग के एक अधिकारी की अतिरिक्त सतर्कता से ऐसा बखेड़ा खड़ा हुआ कि सरकार को बैकफुट पर आना पड़ा। यह वही अफसर हैं जो एक कांग्रेसी नेता के यहां शादी समारोह में नृत्य करने पर पूर्ववर्ती सरकार के निशाने पर आए। तब से ही वह लूप लाइन में हैं। नया मौका देख, चौका लगाने के इरादे से उन्होंने कचरे मामले में ऐसी मुस्तैदी दिखाई कि गढ़ में ही विरोध के स्वर उभर आए। नाराज लोग मरने, मारने पर उतारू हो गए। मौके की नजाकत देख, सरकार को कदम वापस खींचने पड़े।

पहले पदोन्नति, अब सर्जरी

गुजरते साल के अंतिम दिनों में तीनों ही संवर्ग के अफसरों को पदोन्नति की सौगात मिली और जो बचे हैं उन्हें देने की तैयारी है। नया साल 2015-16 बैच के आईएएस अफसरों के लिए खुशखबरी लाने वाला होगा। दरअसल, इस बैच के अधिकारियों में इक्का-दुक्का को ही अब तक कलेक्टरी मिली। माना जा रहा है 6 जनवरी को चुनाव आयोग का बैन हटते ही एक बार फिर जिलों से लेकर मंत्रालय स्तर तक बड़े पैमाने पर प्रशासनिक सर्जरी होगी। जो पदोन्नत हुए वे और बड़े पद पर पहुंचेंगे। जो जगह खाली होंगी, उन्हें भी भरना ही होगा।

राजनीतिक नियुक्तियों का भी महीना

सत्तारूढ़ दल भाजपा में चुनाव की प्रक्रिया भी 15 जनवरी तक पूरी हो जाने के संकेत हैं। इसके बाद राजनीतिक नियुक्तियों की प्रक्रिया शुरू हो सकती है। यानी जो संगठन में पद पाने से वंचित हैं, वे सत्ता में भागीदार बनेंगे। पुराने भागीदारों को बीते साल फरवरी में बाहर कर दिया गया था।

काले की पूछ-परख, लाल की नहीं

वन्यजीव संरक्षण अधिनियम में लाल मुंह के बंदर वन्य प्राणी संरक्षण से बाहर हैं। यानी विभाग इन्हें वन्य प्राणी नहीं मानता। पूछ परख सिर्फ काले मुंह वालों की है। मुआवजा भी इन्हीं के काटने पर मिलता है। ऐसे में लाल मुंह वालों की नाराजगी स्वाभाविक है। वे आवासीय क्षेत्रों में पहुंचकर उपद्रव मचाते हैं। लोगों की शिकायत पर बंदरों के भेद से अंजान नगरीय निकाय वन विभाग पर जिम्मेदारी मढ़ते रहे हैं। इससे तंग आए विभाग ने अब इन बंदरों को पकड़ने में मथुरा के किसी आबिद की मदद लेने का फरमान जारी किया है।

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