पदस्थापना को बदलवाने के दुष्चक्र में पड़ जाते हैं हम

 

अनोखा तीर, भोपाल। 1993 बैच के आईएफएस शशि मलिक ने सेवानिवृत के आठ महीने पहले एसोसिएशन के व्हाट्स-एप्प गु्रप पर अपने भावनाओं को संकलित कर ब्लॉग के रूप में एक पोस्ट किया है। एसोसिएशन के व्हाट्स-एप्प गु्रप में ब्लॉग पोस्ट होते ही लोकसेवक बिरादरी में सन्नाटा खिंच गया। मलिक ने लिखा है कि पदस्थापना को बदलवाने के फेर में हम ऐसे दुष्चक्र में फंस जाते कि आईने के सामने खड़े होकर स्वयं से भी नजरें नहीं मिला पाते है, हम केवल एक कठपुतली मात्र बनकर रह जाते हैं तथा हमारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व कहीं न कहीं विलीन हो जाता है। नए साल के जुलाई में रिटायर होने वाले शशि मलिक जहां भी सदस्य रहे, वहां सुर्खियों में बने रहे। वर्तमान में वे मुख्यालय के समन्वय शाखा में प्रमुख हैं। यहां का पदभार संभालते ही उन्होंने तृतीय और चतुर्थ कर्मचारी को कार्यालय में गणवेश वर्दी पहनकर आने की अनिवार्यता आदेश जारी कर सुर्खियों में है। इसकी वजह यह है कि मुख्यालय में ही उनके आदेश का माखौल उड़ाया जा रहा है। अपने तमाम पदस्थापनाओं के दौरान अनुभवों को समेटते हुए एक ब्लॉग में लिखा कि कई बार हम अपनी वर्तमान पद स्थापना से संतुष्ट नहीं होते है तथा येन-केन-प्रकारेण पदस्थापना को बदलवाने के दुष्चक्र में पड़ जाते है। इस सम्पूर्ण प्रक्रिया में हमारा कई प्रकार से दोहन किया जाता है। जिसका प्रभाव पुन: हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर भी पड़ता है। इस प्रकार हम एक दुष्चक्र में फंस जाते है जिससे निकलने का हमें कोई भी मार्ग नहीं मिलता है। हम केवल एक कठपुतली मात्र बनकर रह जाते हैं तथा हमारा सम्पूर्ण व्यक्तित्व कहीं न कहीं विलीन हो जाता है। इस दुष्चक्रमें फंसकर हम न तो स्वतंत्र रूप से कोई निर्णय ले पाते हैं तथा न ही कर्तव्यों का सम्पादन उचित रूप से कर पाते है, जिसकी हमसे अपेक्षा की जाती है। हम अपने वर्तमान की उस समय से तुलना करें, जब हम इस पवित्र शासकीय सेवा के सदस्य नहीं थे। उस समय हमारी विचारधारा क्या थी, हम क्या सोचते थे? परन्तु शासकीय सेवा में आते ही हमारे विभिन्न प्रकार के स्वार्थ जागृत हो जाते हैं तथा हम उन्ही की पूर्ति में लग जाते है। हमें इस प्रकार की मानसिकता से बाहर निकलने की आवश्यकता है। जहां भी हमारी पदस्थापना होती है, हमें उसी में पूर्ण रूप से आनंद लेना चाहिए, क्योंकि कई बार इस दुष्चक्र में फंसकर जाने-अनजाने में हम कोई ऐसा कार्य कर जाते हैं कि आईने के सामने खड़े होकर स्वयं से भी नजरें न मिला सकेंगे तो ऐसी स्थिति उत्पन्न ही क्यों होने दी जाए? हमसे अपेक्षा की जाती है कि प्रकृति एवं पर्यावरण संरक्षण जैसे कार्य को हम नौकरी समझ कर नही बल्कि एक पवित्र कार्य मानते हुए निष्काम भाव से पूर्ण करें। हमारे कर्तव्य पालन का केवल एक ही तरीका है।

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