वर्ष 2023 के अंत में हो रहे मध्यप्रदेश के विधानसभा चुनाव में ‘‘जनता की सरकार’’! किस झंडे तले?

नवम्बर 2023 में मध्य-प्रदेश के विधानसभा चुनाव अन्य 4 प्रदेशों व एक केन्द्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर (संभावित) के साथ हो रहे हैं। बदलते गुजरते समय के साथ ‘युग’ परिवर्तनवादी, प्रगतिवादी, विकासवादी होता है, या कभी पिछड़ेपन लिये भी होता है, परंतु ‘‘जड़’’ नहीं होता है। बड़ा प्रश्न यह है कि आगामी होने वाले विधानसभा चुनाव में ‘‘डंका’’ किसका बजेगा, ‘‘झंडा’’ किसका गड़ेगा और 26 जनवरी 2024 को गणतंत्र दिवस की परेड की सलामी लाल परेड पुलिस ग्राउंड, भोपाल में कौन लेगा? परिवर्तन होगा? या पुनरावृत्ति होगी? इसका सटीक आकलन करना तो ‘‘गूलर का फूल तलाशने’’ जैसा है। फिर भी लगभग 9 महीनों बाद होने वाले विधानसभा चुनाव का आकलन पिछले सवा चार सालों की कार्यप्रणाली के आधार पर और हो रही चुनावी तैयारी को ध्यान में रखकर किया जा रहा है। परन्तु आगामी इन 9 महीनों में आगे क्या कुछ घटेगा, जो शायद हमारी-आपकी कल्पनाशीलता में न हो या जिस पर हम आज विचार नहीं कर पा रहे हैं, का परिणामों के अनुमान पर प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है। परन्तु फिर बड़ा प्रश्न यही है कि, इस ‘‘सूरते हाल’’ में ‘‘तेल देख तेल की धार देखते हुए’’ वर्तमान चुनावी आकलन इस प्रदेश के बाबत् क्या है?
अभी चुनाव में 9 महीने शेष है। गर्भधारण करने से सामान्यतः 9 महीनों में बच्चे का जन्म होता है और प्रसव कष्ट सहने के साथ बच्चे के पैदा होने पर माँ व परिवार को खुशी होती है। कुछ-कुछ वैसी ही स्थिति राजनैतिक आकलन की भी समझिए। आज राजनैतिक आकलन का ‘‘भ्रूण’’ डाला गया है। 9 महीने बाद जब परिणाम आएंगे, तब राजनीतिक आकलन या चुनावी जनमत सर्वेक्षण (ओपिनियन पोल) किसी को ‘कष्ट’ देंगे तो किसी के चेहरे पर ‘मुस्कुराहट’ ला देंगे, यह देखने की बात होगी। गर्भधारण के बाद लिंग टेस्ट करना कानूनन अपराध है। जैसे ‘‘एक्जिट पोल’’ सर्वेक्षण पर कानूनी प्रतिबंध (मतदान समाप्त होने के समय तक) जरूर लगाया गया है, तथापि ओपिनियन पोल पर नहीं।
सिद्धांतः राजनीति का सामान्य सा सिद्धांत यह है कि जब कोई सरकार जनादेश पाकर चुनी जाती है, वह पांच वर्ष अपने चुनावी घोषणा पत्र के वादे की पूर्ति हेतु जनहित में कार्य कर 5 साल बाद पुनः जनादेश मांगने के लिए जनता के पास फिर जाती है। क्या इस ‘‘कसौटी’’ पर भाजपा फिर ‘‘खरी’’ उतरेगी या अपने किये गये वादों को पूरा न करने के कारण जनता में फैले असंतोष से पिछले विधानसभा चुनाव के समान कांग्रेस भाजपा का ‘‘टाट उलट कर’’ सत्ता का ‘‘मुकुट’’ पहन पाएगी? इसका कुछ तथ्यात्मक अनुमान लगाना यद्यपि ‘‘कुंए में बांस डाल कर तलाशने’’ जैसा है, तथापि अनुमान लगाने के पूर्व चुनाव संबंधी कुछ सामान्य बातों की चर्चा कर लेना आवश्यक है।
जहां तक चुनावी घोषणा पत्र/वचन पत्र का प्रश्न है, कोई भी पार्टी चुनावी वादों के घोषणा पत्र को 5 साल की अवधि में न तो पूरा कर पाती है और न ही समस्त वादे पांच साल की अवधि में करने के लिए होते हैं। सामान्य रूप से आम जनता भी इन घोषणा पत्रों को ‘‘कागजी घोड़े’’ मानते हुए उन पर ध्यान न देकर मात्र एक ‘परिपाटी’ मान कर उनके पूरा होने या न होने के आधार पर अपने मतों का निर्णय नहीं करती है। इसलिए चुनावी घोषणा पत्र के लागू होने का मुद्दा इस चुनावी परिणाम में बहुत कारक होगा, ऐसा लगता नहीं है। यह चुनाव परिणाम की दिशा को तय करेगा, ऐसा भी नहीं लगता है, विपरीत इसके जैसा कि विश्व के कुछ लोकतांत्रिक देशों में होता है। यद्यपि पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस की जीत का बडा कारक जनता के असंतोष को ही बतलाया गया था।
विधानसभा चुनाव में एक प्रमुख मुद्दा एंटी इनकम्बेंसी (सत्ता विरोधी कारक) का होता है। इस फैक्टर का मतलब कदापि यह नहीं होता है कि सत्ताधारी दल की सत्ता के खिलाफ ही अंसतोष हो। बल्कि तथ्य एक यह भी होता है कि जनता ने जिन प्रतिनिधियों को चुना है, चाहे वे सत्ता या विपक्ष के हो, जनता की नजर में वे आरूढ़ (सत्ता-रूढ़ विधायिका के) है। इसीलिए चुने हुए विधायकों के खिलाफ स्थानीय स्तर पर भी एक ऐसी ही एन्टी इनकम्बेंसी फैक्टर मौजूद होती है। क्योंकि वोटर किसी ‘‘एक जहाज का पंछी’’ नहीं होता है। यह बात जरूर है कि यह कारक सत्ता पक्ष के खिलाफ ज्यादा होता है, क्योंकि उनके पास जनता के हितों के लिए कार्य करने के लिए सत्ता (पावर) होता है। इस दृष्टि से देखे तो मध्यपद्रेश में सत्ताधारी पार्टी भाजपा के कार्यकर्ताओं में असंतोष सीमा से ज्यादा खतरनाक लेवल (स्तर) तक पहुंच गया है। यह सबसे बड़ा चिंता का कारण संघ सहित भाजपा के शीर्ष नेतृत्त्व के लिये बन गया है। क्योंकि असंतुष्ट जनता को बूथ में लाने का कार्य संतुष्ट कार्यकर्ता कर सकता है, परन्तु संतुष्ट जनता को बूथ में लाने का कार्य असंतुष्ट कार्यकर्ता नहीं कर सकता है। क्योंकि ‘‘कड़े गोश्त के लिये पैने दांतों की जरूरत होती है’’।
एक अनुमान के अनुसार प्रदेश की दोनों प्रमुख राजनीतिक पार्टियां भाजपा व कांग्रेस का प्रतिबद्ध (कमिटेड) वोटर लगभग कुल 40 प्रतिशत के आसपास होता है। आप हम सब जानते है कि इस देश में कम से कम 50 प्रतिशत मतदाता (कमिटेड अथवा फ्लोटिंग (अस्थाई) दोनों) राजनैतिक पार्टी के कार्यकर्ताओं के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष प्रयासों से ही बूथ पर पहुंचते हैं। इस कारण से कहीं न कहीं भाजपा के गले में खतरे की घंटी बज रही है। वैसे एन्टी इनकंबेंसी फैक्टर को (ओवरपावर्ड) ‘‘कसाई के खूंटे से बांधने’’ और ‘नेस्तनाबूद’ करने की क्षमता भाजपा में आ गई है। साक्ष्य स्वरूप गुजरात, उत्तराखंड, असम, गोवा व कर्नाटक प्रदेशों के चुनाव परिणाम हैं। परन्तु भाजपा की विकास यात्रा कहीं इतिहास की पुनरावृत्ति न कर दे, जब अटल जी के जमाने में अरुण जेटली ने शाइनिंग इंडिया का नारा दिया था और क्या परिणाम आये, आपके सामने है। प्रदेश में चल रही विकास यात्रा में उत्पन्न अभी तक का छुपा हुआ जन असंतोष विरोध के रूप में कमोवेश हर जगह प्रदर्शित हो रहा है, भले ही छुटपुट हो। इससे यह आशंका बलवती हो रही है कि कहीं यह कदम उल्टा न पड़ जाए? विपरीत इसके इन संकेतों को समझकर अगले 9 महीने में इसे बेअसर भी किया जा सकता है?
अब यदि कांग्रेस की चुनावी संभावनाओं की दृष्टि से बात करे से तो प्रदेश में यह पहली बार हो रहा है कि चुनाव होने के पूर्व ही नेतृत्व पर शंका व विवाद की स्थिति नहीं है। ‘‘एकै साधे सब सधे’’ जैसी स्थिति है। अर्थात कांग्रेस की जीत की स्थिति में कमलनाथ ही मुख्यमंत्री बनेंगे, इसमें कोई शक ओ शुब्हा नहीं है। यह स्थिति कांग्रेस को ताकत व मजबूती से लड़ने के लिए प्रेरक तत्व होकर ताकत बन सकती है। चंूंकि उम्र के पड़ाव की दृष्टि से कमलनाथ का यह आखिरी चुनाव लगता है, अतः वे अब अपने बेटे नकुलनाथ को सत्ता की गद्दी पर बैठने के लिए मजबूत आधार प्रदान करना चाहेगें। परन्तु जिस प्रकार सिक्के के दो पहलू होते है, उसी तरह कांग्रेस की गुटबाजी का एक पहलू तो ‘‘बहुतेरे जोगी मठ उजाड़’’ की उक्ति को चरितार्थ करता है, तो दूसरा पहलू गुटबाजी उसकी ’ताकत भी है। प्रत्येक गुट अपनी शक्ति को दिखाने के लिए पूर्ण ताकत व क्षमता से चुनाव में कूदता है, जिसका फायदा अंततः पार्टी को मिलता है।
मध्यप्रदेश क्षत्रप में बंटा हुआ प्रदेश है। एक क्षत्रप (महाकौशल) नेता के नेतृत्व पर मोहर लगाई है। परन्तु जो वर्षों मुख्यमंत्री का सपना व आस बैठाये हुए अन्य क्षत्रप नेता (राहुल सिंह, अरुण यादव आदि आदि) है, क्या वे कांग्रेस को जिताने में अपनी ताकत का उतना ही प्रयोग करेंगे, जितना कि वे स्वयं के लिए मुख्यमंत्री पद की दौड़ होने की स्थिति में करते? अन्यथा नेतृत्व पर अंतिम मोहर लगाने के मुद्दे से उत्पन्न आक्रोश, असंतोष के कारण कमलनाथ की सत्ता के घोड़े के रथ को मंजिल पहुंचाने में रुकावटें आएगी? कमलनाथ इस सत्ता के रास्ते में आ रही रुकावटों को जितनी समरसता में बदलने का सफल प्रयास करेंगे, उतने ही सफलता से कांग्रेस आयेगी। इसलिए अभी फिलहाल दोनों पक्ष राजनीतिक मैदान में अपनी-अपनी चाल चलने के लिए उतर गये है।
भाजपा तो हमेशा की तरह समय पूर्व ही चुनाव की तैयारी में जुट जाती है, बल्कि वह पांचों साल कहीं न कहीं चुनावी मोड में ही रहती है। परन्तु कांग्रेस की स्थिति ‘‘गयी भैंस पानी में’’ जैसी होती है। कहीं-कहीं तो ‘‘बी फार्म’’ भी हेलिकाॅटर से पंहुचाने पड़ जाते हैं। लेकिन इस बार कमलनाथ ने भी ‘‘तुम डाल डाल हम पात पात’’ की तर्ज पर भाजपा की तरह पन्ना प्रमुख के साथ तैयारी समय-पूर्व वैसी ही प्रारंभ कर दी है। ‘‘संघे शक्तिः कलौयुगे’’ का सूत्र वाक्य पकड़ कर ‘‘संघ स्टाइल’’ में चुनाव लड़ने की कमलनाथ की तैयारी चालू है। इसलिए आज की स्थिति में यह कहना बहुत जल्दबाजी होगा कि चुनाव में कौन पार्टी जीतेगी? पिछले विधानसभा चुनाव में जब भाजपा की हार हुई थी व कांग्रेस की जीत हुई, तब ‘‘कांग्रेस के हाथ बटेर’’ लगने का अनुमान किसी ने नहीं किया गया था। इसलिए इस बार कांग्रेस ज्यादा सशक्त तरीके से चुनाव लड़ने का प्रयास कर रही है क्योंकि उसे अब सत्ता प्राप्ति की उम्मीद ज्यादा लग रही है, जो शायद पिछली बार इतनी भी नहीं थी। परन्तु पिछले विधानसभा चुनाव की तुलना में कांग्रेस के 28 विधायक टूटकर भाजपा में शामिल हुए जिसमें मात्र 9 विधायक कांग्रेस के पुनः चुनकर आये। इससे हुई नुकसान की भरपाई कमलनाथ कैसे कर पाएंगे, यह भी देखने की बात होगी। इसलिए अभी चुनावी मैदान खुला है। क्योंकि चुनावी परिणाम को बिगाड़ने में दूसरे क्षेत्रीय दलों और आप पार्टी का उद्भव होना बाकी है। तब तक सही परिणाम के अनुमान लिए इंतजार करना ही होगा। अंक देने की दृष्टि से फिलहाल दोनों ही पार्टियों को 5-5 अंक देने होंगे, क्योंकि ऊंट किस करवट बैठेगा, यह सुनिश्चित करना फिलहाल आज मुश्किल है।

लेखक वरिष्ठ कर सलाहकार एवं पूर्व सुधार न्यास अध्यक्ष है

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