प्रकाश भटनागर, वरिष्ठ पत्रकार
अशोक गहलोत ने तो गजब ही कर दिया। कांग्रेस में अपने भविष्य को खतरे में डाल दिया। सचिन पायलट की उम्मीदों को संकट में डाल दिया। इस सबसे भी आगे बढ़कर उन्होंने गांधी-नेहरू परिवार को अजीब सांसत में डाल दिया। परिवार के सामने विश्वसनीयता का बड़ा संकट गहरा गया। अब भले ही गहलोत को कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनने का मौका न मिले। शायद खुद गहलोत भी नहीं ही चाह रहे होंगे। लेकिन उन्हें मुख्यमंत्री पद से हटाना आलाकमान के लिए बड़ी चुनौती बन चुकी है। ऐसा खुद गहलोत भी जताना चाह रहे हैं।
राजस्थान में कांग्रेस के करीब अस्सी विधायकों के इस्तीफे की पेशकश का राज्य की सरकार से अधिक सारोकार इस बात से है कि सोनिया और राहुल गांधी के अति विश्वसनीय माने जाने वाले गहलोत ने एक झटके में इन दोनों को आंख दिखाने में कोई कोर-कसर बाकी नहीं रखी। सचिन पायलट को मुख्यमंत्री न बनने देने की जिद का संकेत साफ है। वह यह कि गहलोत के हृदय में भले ही गांधी-नेहरू परिवार के लिए सम्मान शेष हो, लेकिन इस परिवार का कोई भी डर उनके भीतर नहीं रह गया है। इतने परिपक्व और मंझे हुए राजनीतिज्ञ ने पार्टी में कथित अनुशासन वाले धारदार मंजे की यदि कोई परवाह नहीं की तो फिर साफ है कि यह सोनिया गांधी और राहुल गांधी को अब उनके कैंप के भीतर से ही मिली चुनौती का प्रतीक है। जी-23 का असर जी-हुजूरी करने वालों तक भी पहुंच गया है। गहलोत और पायलट के झगड़े में गहलोत अब उस तैश तक पहुंच गए हैं, जहां वे कांग्रेस नेतृत्व को, ‘आपका बहुत सम्मान करता हूं, लेकिन इस मामले में हाथ जोड़कर निवेदन करूंगा कि मेरे रास्ते से हट जाओ’ वाली मुद्रा में उसकी हद में सिमटाते हुए दिख रहे हैं।
बेचारे राहुल गांधी। भारत जोड़ने निकले हैं और अपनी ही पार्टी को तोड़ने वालों पर उनका कोई बस नहीं चल रहा है। मजे की बात यह कि कांग्रेस राजस्थान में भी उस प्रलयंकारी भूल की तैयारी में है, जो उसने पंजाब में कैप्टन अमरिंदर सिंह को चुनाव से कुछ ही समय पहले मुख्यमंत्री पद से हटाकर की थी। यानी इस पार्टी का मौजूदा नेतृत्व पुरानी गलतियों से कुछ भी सीखने को तैयार नहीं है। गहलोत को राष्ट्रीय अध्यक्ष का पद पार्टी के हित को देखते हुए नहीं दिया जा रहा। ऐसा सिर्फ इसलिए किया जा रहा था कि रिमोट कंट्रोल वाले गहलोत की शक्ल में नेहरू-गांधी परिवार का हित कायम रहे। लेकिन अब यह दांव भी उलटा पड़ता दिख रहा है। शायद इसलिए ही परिवार को मनमोहन सिंह जैसे लोग रास आते हैं। इसलिए स्वर्गीय अर्जुन सिंह चाहे जितनी वफादारी जताते रहे हों लेकिन उन्हें चाबी थमाने की गलती परिवार ने कभी नहीं की। प्रणव मुखर्जी के साथ भी ऐसा ही हुआ था। अशोक गेहलोत के मामले में परिवार गच्चा खा गया।
सोनिया और राहुल के लिए यह बुरी तरह से भद पिटने वाली स्थिति है। कांग्रेस छोड़कर गुलाम नबी ‘डेमोक्रेटिक आजाद पार्टी’ बना चुके हैं। गहलोत कांग्रेस में रहते हुए ही ‘मैं आजाद हूं’ वाले तेवर दिखा रहे हैं। निश्चित ही कांग्रेस डैमेज कण्ट्रोल की अंत तक कोशिश करेगी। शायद वह फौरी तौर पर सफल भी हो जाए, लेकिन एक बात तय है कि जो डैमेज यहां पार्टी को हो गया, उसकी भरपाई अब शायद ही की जा सकेगी। जिस समय सचिन पायलट ने पहली बार बगावत की, तब कांग्रेस ने खींच-तानकर इन दो गुटों के बीच समझौता करवा दिया था। तब ज्योतिरादित्य सिंधिया से मिली चोट गहरी थी। लेकिन राजस्थान में भी खंदक इतनी गहरी हो गयी कि आज गहलोत खेमा समानान्तर आलाकमान जैसी भूमिका में दिख रहा है। राहुल गांधी की वैचारिक कमजोरी से सभी बखूबी परिचित हैं, लेकिन सोनिया गांधी को क्या हो गया है? पुत्र-मोह में पार्टी की वास्तविक हालात से मूंदे सोनिया के नेत्र इस पार्टी के भविष्य के लिए अच्छे संकेत नहीं दे रहे हैं। इस ढुलमुल स्थिति के चलते गहलोत कांग्रेस नेतृत्व के लिए सांप-छछूंदर वाली स्थिति बना चुके हैं। यदि उनके खिलाफ कार्यवाही हुई तो बहुत मुमकिन है कि राजस्थान के रूप में कांग्रेस एक और राज्य से हाथ धो बैठे। कांग्रेस की दरारों का अब और गहरा हो जाना तय है।
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