शबरी के पिता भीलों के राजा थे. शबरी जब विवाह योग्य हुई तो इनके पिता ने एक भील कुमार से इनका विवाह पक्का किया. विवाह के दिन निकट आये. सैकडों बकरे-भैंसे बलिदान के लिये इकट्ठे किये गये.
शबरी ने पूछा- ये सब जानवर क्यों इकट्ठे किये गये हैं ? उत्तर मिला- तुम्हारे विवाह के उपलक्ष्य में इन सबका बलिदान होगा.
भक्तिमती भोली बालिका सोचने लगी. यह कैसा विवाह जिसमें इतने प्राणियों का वध हो. इस विवाह से तो विवाह न करना ही अच्छा. ऐसा सोचकर वह रात्रि में उठकर जंगल में चली गयी और फिर लौटकर घर नहीं आयी.
शबरी जी पर गुरु कृपा – दण्डकारण्य में हजारों ऋषि-मुनि तपस्या करते थे, शबरी भीलनी जाति की थी, स्त्री थी, बालिका थी, अशिक्षिता थी. उसमें संसार की दृष्टि में भजन करने योग्य कोई गुण नहीं था. किन्तु उसके हृदय में प्रभु के लिये सच्ची चाह थी, जिसके होने से सभी गुण स्वत: ही आ जाते हैं. वे मुनि मतंग जी को अपना गुरु बनना चाहती थी पर उन्हें ये भी पता था कि भीलनी जाति कि होने पर वे उन्हें स्वीकार नहीं करेगे इसलिए वे गुरु सेवा में लग गई.
रात्रि में दो बजे उठती जिधर से ऋषि निकलते उस रास्ते को नदी तक साफ करती. कँकरीली जमीन में बालू बिछा आती. जंगल में जाकर लकडी काटकर हवन के लिए डाल आती. इन सब कामों को वह इतनी तत्परता से छिपकर करती कि कोई ऋषि देख न लें. यह कार्य वह वर्षो तक करती रही. अन्त में मतंग ऋषि ने उस पर कृपा की और ब्रह्मलोक जाते समय उससे कह गये कि मैं तेरी भक्ति से बहुत प्रसन्न हूँ. भगवान् स्वयं आकर तेरी कुटी पर ही तुझे दर्शन देंगे !
साधना का पथ –
शबरी जी का इंतजार शुरू हो गया. सुबह उठते ही शबरी सोचती-प्रभु आज अवश्य ही पधारेंगे. यह सोचकर जल्दी-जल्दी दूर तक रास्ते को बुहार आती, पानी से छिडकाव करती. गोबर से जमीन लीपती. जंगल में जाकर मीठे-मीठे फलों को लाती, ताजे-ताजे पत्तों के दोने बनाकर रखती. ठंडा जल खूब साफ करके रखती और माला लेकर रास्ते पर बैठ जाती.
एकटक निहारती रहती. तनिक सी आहट पाते ही उठ खडी होती. बिना खाये-पीये सूर्योदय से सूर्यास्त तक बैठी रहती. जब अँधेरा हो जाता तो उठती, सोचती आज प्रभु किसी मुनि के आश्रम पर रह गये होंगे, कल जरूर आ जायँगे. बस, कल फिर इसी तरह बैठती और न आने पर कल के लिये पक्का विचार करती, ताजे फल लाती. इस प्रकार उसने बारह वर्ष बिता दिये.
“कब दर्शन देंगे राम परम हितकारी,
कब दर्शन देगे राम दीन हितकारी,
रास्ता देखत शबरी की उम्र गई सारी”
गुरु के वचन असत्य तो हो नहीं सकते. आज नहीं तो कल जरूर आवेंगे इसी विचार से वह निराश कभी नहीं हुई. भगवान् सीधे शबरी के आश्रम पर पहुँचे. उन्होंने अन्य ऋषियों के आश्रमों की ओर देखा भी नहीं. शबरी के आनन्द का क्या ठिकाना ? वह चरणों में लोट-पोट हो गयी. नेत्र के अश्रुओं से पैर धोये, हृदय के सिंहासन पर भगवान् को बिठाया, भक्ति के उद्रेक में वह अपने आपको भूल गयी. सुन्दर-सुन्दर फल खिलाये और पंखा लेकर बैठ गयी. फिर शबरी ने स्तुति की,
भगवान् ने नवधा भक्ति बतलायी, और शबरी को नवधा भक्ति से युक्त बतलाकर उसे निहाल किया. फिर शबरी जी अपने गुरु लोक को गई !