उनकी अनमोल कृतियां पाकर आल्हादित हुआ
प्रहलाद शर्मा
आज मुझे समपट (देशज भाषा का शब्द) नहीं पढ़ रही कि क्या लिखूं, कैसे लिखूं, कहां से शुरू करु और कहां खत्म करु। ख़बरें तो पिछले पैंतीस सालों से लिखते पढ़ते आया, लेकिन आज जो लिखना चाह रहा हूं वह खबर है, लेख है या भावाभिव्यक्ति, हां, शायद यह सही शब्द हो सकता है भावाभिव्यक्ति। लेकिन इसे भी व्यक्त कैसे करु ? साहित्यकार मैं हूं नहीं, कविताएं पढ़ी सुनी है लेकिन कवि भी नहीं हूं, स्वयं को पत्रकार कहलाता हूं, लेकिन शायद पूरी तरह वह भी नहीं। एक आंचलिक संवाददाता के तौर पर काम शुरू किया था लेकिन आज एक अखबार का प्रकाशन ओर संपादन करने के कारण पदनाम अवश्य संपादक हो गया, वास्तव में संपादक भी नहीं। खैर इतना ही क्या कम है कि मैं हूं, तभी तो लिखने की सोच रहा हूं, अगर होता ही नहीं तो भला क्या कर लेता। चलो इतना तो आत्मज्ञान हो गया कि मैं हूं तभी तो मेरी मुलाकात पत्रकारिता के सशक्त हस्ताक्षर, विद्या की अधिष्ठात्री देवी मां सरस्वती के वरदपुत्र, शब्द साधक महेश श्रीवास्तव जी से हुई। जी हां, वहीं महेश श्रीवास्तव जी जो प्रखर पत्रकार हैं, जिनकी त्वरित टिप्पणी और संपादकीय पढ़ने के लिए पाठक उतावले हुआ करते थे। जिनके लेखन और लेखनी से कभी दैनिक भास्कर जैसा अखबार पहचाना जाता था। वही सुधी साहित्यकार जिन्होंने गद्य और पद्य दोनों विधाओं में सिद्धहस्त लेखन किया है। जिनकी प्रणाम मध्यप्रदेश, वरदा नर्मदा, सूर्यांश का प्रमाण, आवर्त जैसी कृतियां प्रकाशित हुई। वही प्रख्यात कवि जिन्होंने कान्हा में कविता, कविता में मध्यप्रदेश और मध्यप्रदेश को अपनी पृथक पहचान दिलाने वाला मध्यप्रदेश गान लिखा है। वही मध्यप्रदेश गान जो हर शासकीय आयोजनों में सबसे पहले सुनाई देता है ” सुख का दाता, सब का साथी, शुभ का यह संदेश है, मां की गोद, पिता का आश्रय, मेरा मध्यप्रदेश है। जिन्हें गणेश शंकर विद्यार्थी राष्ट्रीय सम्मान, भारत भाषा भूषण, माखनलाल चतुर्वेदी संपादक सम्मान, श्रेष्ठ कला आचार्य, अक्षर आदित्य जैसे अनेक सम्मानों से नवाजा जा चुका है। इन्हीं पत्रकारिता के शिखर पुरुष महेश श्रीवास्तव जी से वर्षों उपरांत पुनः प्रत्यक्ष भेंट हुई। लगभग 20 वर्ष पहले जब मैं भोपाल में ही दैनिक जागरण अखबार में सेवारत था तब श्रीवास्तव जी दैनिक भास्कर में सेवाएं प्रदान कर रहे थे तो अपने एक मित्र के साथ मुलाकात हुई थी। लेकिन तब उन्होंने भी सामान्य तौर पर अन्य आगंतुकों की तरह ही शिष्टाचारवश नमस्कार करते हुए दृष्टि ओझल कर दिया था। तद्उपरांत मेरा संपर्क महज टेलिफोनिक ही बना रहा। मैं भोपाल छोड़कर हरदा आ गया, वह अखबारों की नौकरी छोड़कर स्वतंत्र लेखन करने लगे। मैं उन्हें वाट्सएप पर ही प्रति दिन अपना अखबार दैनिक अनोखा तीर भेजता रहा, जो आज भी भेजता हूं। तीज त्यौहार पर शुभकामना संदेश आदि भेजता रहा और वह भी सौजन्यता वश मुझे अपना शुभाशीष सदैव प्रदान करते रहे। चूंकि आम पाठकों की तरह ही मैं भी उनका एक प्रसंशक ओर पाठक हुआ करता था, इसलिए मुझे उनके लेखन कौशल की भली-भांति समझ है। जिससे प्रभावित होकर मैंने मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री शिवराजसिंह चौहान के जन्मदिन अवसर पर जब पत्रिका प्रकाशन शुरू किया तब 2017 में श्रीवास्तव जी से भी एक लेख लिखने के लिए आग्रह किया। उन्होंने उस समय अपना एक लेख मुझे उपलब्ध करा दिया। लेकिन इसके बाद जब दूसरे वर्ष अवसर आया तो उन्होंने अपनी अस्वस्थता के कारण असमर्थता जताई। चूंकि तब उनकी बायपास सर्जरी हुई थी। अब इस तरह यदा-कदा मोबाइल पर ही चर्चाएं होती रही। पिछले दिनों जब मैंने दीपोत्सव की शुभकामना देते हुए आर्शीवाद प्राप्त करने फोन लगाया तब काफी देर चर्चाएं हुई। उन्होंने बताया कि वह डिस्क व मांसपेशियों में दर्द से परेशान हैं। वैसे भी 82 वर्ष की आयु में शरीर अनेक प्रकार के विकारों से ग्रस्त हो जाता है। लेकिन तमाम बिमारियों से लड़ने के बाद भी श्रीवास्तव जी काफी फीट है। चूंकि मैं स्वयं इस समस्या का सामना कर चुका हूं और मुझे दिल्ली के एक्यूप्रेशर मैग्नेट थैरेपी चिकित्सक एस के गर्ग के उपचार से काफी लाभ मिला। इसलिए मैंने उनसे भी यह उपचार लेने के लिए अनुरोध किया। डॉ गर्ग आजकल प्रतिमाह हरदा आने लगे हैं तो श्रीवास्तव जी ने हरदा आकर ही उपचार लेने की बात कही। परंतु संयोगवश डॉ गर्ग भोपाल ही आ रहे थे तो मैंने यह बात श्रीवास्तव जी को बताई। अब इसी तारतम्य में फिर सौभाग्य मिला सशरीर भेंट करने का, जो हो भी गई और यादगार भी बन गई। इस दौरान उन्होंने मानों अपने स्नेह का पूरा खजाना ही मुझ पर लूटा दिया। लंबे समय से पत्रकारिता के क्षेत्र में कार्य करते हुए वैसे तो मेरी मुलाकात देश के अनेक राजनेताओं, फिल्मी दुनिया के कलाकारों, रंगमंच और सामाजिक तथा सांस्कृतिक, धार्मिक व प्रशासनिक क्षेत्रों की अनेकानेक हस्तियों से होती भी रहीं ओर अनेक लोगों का साक्षात्कार कर उन्हें प्रकाशित भी करते रहा हूं। मैं बड़भागी हूं कि मुझे देश के सुप्रसिद्ध साहित्यकार व व्यंग्य लेखक तथा फिल्म समीक्षक प्रोफेसर आर एस यादव “अजातशत्रु जी” का सानिध्य लगातार प्राप्त होता रहा और उनके व्यंग्य लेख अपने अखबार में निरंतर प्रकाशित करने का भी सौभाग्य मिला। एक समय तो अजातशत्रु जी ने दैनिक अनोखा तीर के लिए मैदानी रिपोर्टिंग तक कर दी थी। तब नर्मदापुरम संभागायुक्त मनोज श्रीवास्तव हुआ करते थे, उन्होंने मुझे सुबह सुबह ही फोन किया और कहा प्रहलाद अजातशत्रु जी से मैदानी रिपोर्टिंग करवा रहें हो, कलेक्टर के प्राण लोगे क्या? चूंकि वह खबरें ही इतनी इतनी तिखी ओर लाइव रिपोर्टिंग वाली थी। बहरहाल उन्हें ऐसा करने से रोकने का मुझमें साहस नहीं था। इसी तरह राष्ट्रीय कवि माणिक वर्मा, कवि संतोषानंद, गोपालदास नीरज, वरिष्ठ पत्रकार प्रभाष जोशी, लज्जाशंकर हरदेनिया, स्वर्गीय गुरुदेव गुप्त जी, विष्णु कौशिक जी, ओमप्रकाश जी, जैसी अनेक साहित्यिक विभूतियों का स्नेह सानिध्य प्राप्त हुआ। श्री विष्णु कौशिक जी के लेख तो आज भी प्रति सप्ताह निरंतर अनोखा तीर में प्रकाशित हो रहे हैं। अजातशत्रु जी और कौशिक जी आज भी मुझे पुत्रवत स्नेह आर्शीवाद सदैव प्रदान करते हैं। मेरा मानना है कि धन संपदा तो साधारण व्यक्ति भी थोड़े से परिश्रम से कमा लेता है। इस धन के बल पर वह समाज में सम्मान भी प्राप्त कर लेता है। हमने देखा है कि राजनैतिक और प्रशासनिक क्षेत्र में भी पदाशीन व्यक्ति की लोग कैसे चाटूकारिता करते हैं, जिससे वह स्वयंभू भगवान् बनकर दूसरों को आर्शीवाद प्रदान करने लगता है। पद पर रहते हुए उसके चरण कमल हो जाते हैं, लेकिन पद जाते ही उनकी दुर्गति होते भी तो हमने ही देखी है। इसके विपरित स्नेह अमूल्य वस्तु है, जो हर किसी को नहीं मिलती। स्वाभाविक है जब मुझे ऐसी हस्तियों का स्नेह प्राप्त हुआ तो फिर भला मैं आल्हादित क्यों न होऊं। मैं नामचीन पत्रकार चाहें नहीं बन पाया, उच्च स्तरीय साहित्य के गूढ़ साहित्यिक शब्दजाल से खबरों ओर संपादकीय लेखों को नहीं गढ़ पाया, आंचलिक क्षेत्र में कार्य करते हुए चाहें मैंने देशज भाषा में लेखन किया हो, लेकिन इतना तो शब्द ज्ञान है कि आज पत्रकारिता व्रत नहीं शायद व्यवसाय हो गई है। बदलते वक्त के साथ बाजारवाद और पत्रकारिता के अन्तर्सम्बन्धों ने पत्रकारिता की विषय वस्तु तथा प्रस्तुति शैली में व्यापक परिवर्तन आया है। आज जब पत्रकारिता सरकारी गजट या नोटिफिकेशन बन गई है, तब भी महेश श्रीवास्तव ओर विष्णु कौशिक जैसे पत्रकार सामाजिक सरोकारों तथा सार्वजनिक हितों को सर्वोपरि रखकर ही अपनी कलम चलाते हैं। महेश श्रीवास्तव जी ने अपने संपादकीय लेखन में पौराणिक कथाओं, धार्मिक दृष्टांतों तथा तीखे व्यंग्यात्मक लहजे में जो प्रहार किए हैं वह पाठकों को उनका मुरीद बनाने वाले थे। अपने असाधारण लेखन कौशल और पाठकों को प्रेरित करने की अपनी क्षमता से व्यापक मान्यता प्राप्त की है। वही उन्होंने बतौर कवि के रूप में वरदा नर्मदा तथा कान्हा में कविता दौरान उनका प्रकृति चित्रण शब्दों के रूप में इतना सजीव है कि आंखों में वह चित्र के रूप में उभर आते हैं। अपने भावों को उन्होंने इतने सुन्दर तरीके से व्यक्त किया है जिससे पाठक बंधा रहता है। उनके शब्दों का ऐसा विन्यास जो कविता और लेखों को एक अनमोल कृति बना देता है। ओर उनकी यही अनमोल कृतियां उन्होंने भरपूर आर्शीवाद के साथ मुझे अपने हाथों से स्नेह वचन तथा हस्ताक्षर सहित भेंट की है। श्रीवास्तव जी के व्यक्तित्व और कृतित्व पर लिखने का न तो मेरा सामर्थ्य है और न मेरे पास ऐसा शब्दकोश जिससे उनकी साहित्य साधना पर लिख सकूं। लेकिन उनसे स्नेहिल भेंट उपरांत मैं शिवमंगल सिंह सुमन की उन पंक्तियों के साथ अपनी बात को विराम देता हूं कि
सांसों पर अवलंबित काया, जब चलते चलते चूर हुई, दो स्नेह शब्द मिल गए, मिली नव स्फूर्ति, थकावट दूर हुई।
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