आईएफएस एसीआर रिपोर्टिंग और मूल्यांकन मामला

-सुप्रीम कोर्ट के मौखिक निर्देश को नहीं मानी सरकार, अब 23 तारीख को सुनवाई

गणेश पांडे, भोपाल। आईएफएस एसीआर रिपोर्टिंग और मूल्यांकन मामले पर सुप्रीम कोर्ट के मौखिक निर्देश को सरकार नहीं मान रही है। इसी मसले को लेकर अब 23 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट में फिर सुनवाई है। राज्य सरकार द्वारा उच्चतम न्यायालय में प्रस्तुत जवाब के बाद से एसीआर के सबंध में फैसले को लेकर अनिश्चित का माहौल बना हुआ। उल्लेखनीय है कि अगस्त में प्रदेश सरकार से जवाब मांगते हुए शीर्ष अदालत ने मौखिक रूप से राज्य शासन को विवादास्पद आदेश वापस लेने के लिए कहा था। इस पर राज्य सरकार ने न्यायालय में जवाब प्रस्तुत किया कि उसका आदेश सीईसी द्वारा 2004 में की गई सिफारिशों के बिल्कुल अनुरूप है। राज्य सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत किया कि रिपोर्टिंग प्राधिकरण को केवल संबंधित कलेक्टर या आयुक्त से रिपोर्ट मांगने के लिए कहा गया है। जबकि, एपीएआर लिखने का अधिकार पूरी तरह से आईएफएस के अधिकारी के पास है, जो कि सीईसी द्वारा अनुशंसित है। सरकार ने कहा कि गुजरात, कर्नाटक, राजस्थान और हरियाणा जैसे कई राज्यों में वन सेवा से नहीं, बल्कि वन विभाग के भीतर से ही स्वीकृति प्राधिकारी रखने की प्रथा अपनाई जा रही है। इसमें कहा गया है कि यदि सर्वोच्च न्यायालय को लगता है कि इस मुद्दे पर नए सिरे से विचार करने की आवश्यकता है कि स्वीकृति प्राधिकारी कौन होना चाहिए, तो सभी राज्यों को चर्चा के लिए बुलाया जाना चाहिए।बंसल ने किया है गलत दावाअपने जवाब में राज्य सरकार ने दावा किया कि बंसल की याचिका में गलत दावा किया गया है कि राज्य ने एसीआर प्रस्तुत करने का माध्यम बदल दिया है। सरकार ने कहा कि कलेक्टर द्वारा प्रस्तुत कार्य पूर्णता शीट और मूल्यांकन रिपोर्ट केवल रिपोर्टिंग प्राधिकारी को उनके विचारार्थ रिपोर्ट भेजने के उद्देश्य से है। कलेक्टर की एसीआर लिखने में कोई प्रत्यक्ष भूमिका नहीं है, क्योंकि, इनपुट कल्याणकारी योजनाओं के कार्यान्वयन पर पूरक जानकारी प्रदान करने तक ही सीमित है। कलेक्टर की समीक्षा प्रक्रिया को प्रभावित नहीं करती। सीधे प्रभावित नहीं करती कलेक्टर की समीक्षाअंतिम एसीआर रिपोर्टिंग प्राधिकरण द्वारा तैयार की जाती है और कलेक्टर की समीक्षा सीधे रिपोर्ट लिखने की प्रक्रिया को प्रभावित नहीं करती। राज्य सरकार ने यह भी कहा कि बंसल का तर्क कि वन अधिकारियों को विकास परियोजनाओं के साथ संरक्षण नीतियों को समेटने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है, वर्तमान विवाद के लिए अप्रासंगिक है। यह बताने की आवश्यकता नहीं है कि विकास परियोजना का काम भी मजबूत विनियामक और कानूनी ढांचे के तहत संचालित और विनियमित होता है, जो पर्यावरणीय मुद्दों आदि को नियंत्रित करने वाली नीतियों के साथ सुसंगत है। इसलिए, आवेदक का यह दावा करने का प्रयास कि राज्य के अधिकारियों द्वारा प्रस्तावित विकास परियोजनाएं भारतीय वन सेवाओं द्वारा लागू राष्ट्रीय नीतियों के अनुरूप नहीं हो सकती हैं, निराधार, अप्रमाणित और योग्यता से रहित है।आईएफएस एसोसिएशन किंकर्तव्यविमूढ़ बनाआईएफएस एसोसिएशन को अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ने के बजाय किंकर्तव्यविमूढ़ बना हुआ है। इसका सबब संगठन के पदाधिकारियों की प्राइम पोस्टिंग की चाहत है। शायद यही वजह है कि इस मुद्दे पर चर्चा करने के लिए मुख्यमंत्री से व्यक्तिगत रूप से मिलना चाहते थे, लेकिन, उन्हें केवल अतिरिक्त मुख्य सचिव (वन) से मिलने की अनुमति दी गई। अंतत:, अधिवक्ता गौरव बंसल ने सर्वोच्च न्यायालय में एक अंतरिम आवेदन प्रस्तुत किया, जिसमें तर्क दिया गया कि सरकार के आदेश से वन अधिकारियों के मूल अधिकारों का हनन हुआ है।

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