संपादकीय
प्रहलाद शर्मा
मध्यप्रदेश सरकार द्वारा हाल ही में केबिनेट बैठक दौरान नगरीय निकाय अध्यक्षों के विरूद्ध लाए जाने वाले अविश्वास प्रस्ताव को लेकर आनन-फानन में एक अहम फैसला लिया गया। इस फैसले के तहत अब नगरपालिका, नगर पंचायत अध्यक्षों के विरूद्ध दो वर्ष के बजाय तीन वर्ष का कार्यकाल पूर्ण होने और दो तिहाई की जगह तीन चौथाई बहुमत से ही अविश्वास प्रस्ताव लाया जा सकेगा। मुख्यमंत्री डॉ. मोहन यादव की सरकार ने केबिनेट में इस आशय का प्रस्ताव पारित करते हुए अधिनियम में संशोधन की बात कही है। विधानसभा के आगामी शीतकालीन सत्र में मध्यप्रदेश नगरपालिका अधिनियम १९६१ की धारा ४३ में संशोधन का विधेयक भी लाया जाएगा। आखिर सरकार को यह कदम क्यों उठाना पड़ा? सरकार के इस फैसले से प्रदेश की जनता को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष तौर पर क्या फायदा होगा? क्या वास्तव में नगरपालिका, नगर पंचायत के अध्यक्ष अविश्वास प्रस्ताव के भय से मुक्त होकर विकास कार्य को अंजाम देने में सफल होंगे? क्या वह वर्तमान में जनता की मंशा के अनुरुप विकास को अंजाम दे रहे है? कहीं ऐसा तो नहीं की वर्तमान में मध्यप्रदेश के अधिकांश नगरीय निकायों में भाजपा का कब्जा है और उनकी कार्यप्रणाली से स्वयं भाजपा के ही पार्षदगण असंतुष्ट होकर बगावती सुर निकाल रहे है जिसके चलते सरकार ने यह फैसला लिया है? वैसे भी नगरीय निकायों में आरक्षण व्यवस्था लागू होने के कारण निर्वाचित अध्यक्ष को सामान्य तौर पर पांच वर्ष का कार्यकाल ही मिलता है। उसे पता है कि वह कितनी भी ईमानदारी और निष्ठा के साथ शहर के विकास को अंजाम दें, लेकिन अगले कार्यकाल में आरक्षण व्यवस्था के तहत कोई और ही अध्यक्ष निर्वाचित होगा। ऐसी स्थिति में उसे अपने चुनाव दौरान घोषित अघोषित रुप से खर्च की गई राशि और अपने भविष्य के लिए सुरक्षित निधि एकत्र करने का यही एकमात्र अवसर है। खैर यह तो राजनीतिक पदों पर आसीन होने वाले लगभग जनप्रतिनिधि के साथ कमोबेश यही विचारधारा और कार्यशैली होती रही है। लेकिन सरकार के हालिया फैसले से जहन में एक प्रश्न अवश्य उभरता है कि कहीं सरकार का यह फैसला भ्रष्टाचार को प्रश्रेय देने वाला तो साबित नहीं होगा? सीधे तौर पर जिन अध्यक्षों की विवादास्पद कार्यशैली के चलते उन पर अविश्वास प्रस्ताव की तलवार लटक रही थी उनके लिए सरकार की तरफ से यह अभयदान तो नहीं है? पहले सरकार ने पार्षदों से अध्यक्ष निर्वाचन की प्रक्रिया समाप्त कर सीधे जनता से अध्यक्ष निर्वाचन का प्रावधान किया था। तब खाली कुर्सी भरी कुर्सी जैसी व्यवस्थाएं की गई थी। फिर उसी भाजपा सरकार ने अपने इस प्रावधान को समाप्त कर सीधे जनता से अध्यक्ष के निर्वाचन को न कराते हुए पार्षदों से कराने का प्रावधान किया। अब दो तिहाई के स्थान पर तीन चौथाई और दो साल की जगह तीन साल की व्यवस्था कर सीधे तौर पर अध्यक्षों को पांच वर्ष के लिए खुलकर कार्य करने या खुलकर भ्रष्टाचार करने का अभयदान दे दिया है। अध्यक्ष पद पर रहते हुए क्या यह संभव है कि कोई व्यक्ति एक चौथाई पार्षदों को भी अपने पक्ष में नहीं रख पाए? तीन चौथाई पार्षदों को विरोध में कर लें? तमाम जद्दोजहद करने के बाद अध्यक्ष पद से हटाए भी जाए तो वह महज दो वर्ष के लिए? आखिर सरकार की इस व्यवस्था से अध्यक्ष निर्भीक होंगे या निरंकुश? सरकार के इस फैसले को लेकर परदे के पीछे झांकने पर तो ऐसा लगता है कि लगातार भ्रष्टाचार की शिकायतों के चलते और पार्षदों को महत्व दिए बगैर अपनी मनमर्जी के फैसलों से शहर की बजाए स्वयं का विकास करने वाले जिन अध्यक्षों के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव लाए गए या लाए जा रहे थे उन्हें बचाने का सरकारी प्रस्ताव पारित हुआ है। यहां उल्लेखनीय है कि वर्तमान में नर्मदापुरम्, टीकमगढ़, गुना, भिण्ड, बीनागंज, चाचोड़ा, मुरैना जैसी कई नगरपालिका अध्यक्षों के विरूद्ध अविश्वास प्रस्ताव का बिगुल फूंका जा चुका है तो वहीं हरदा, खिरकिया जैसी कुछ नगर पंचायत, नगर पालिका में भी अविश्वास प्रस्ताव की गूंज सुनाई देने लगी है। इन्हीं स्थितियों को देखकर सरकार ने यह कदम उठाया है। उल्लेखनीय है कि नगर निकायों में साधारण सभा की बैठक दौरान अधिकतर अध्यक्ष अपनी मंशानुसार प्रस्ताव लाकर बहुमत के आधार पर उन्हें कागजों में पारित करा लेते है। चूंकि परिषद के साधारण सम्मेलन का एजेंडा नियमानुसार १५ दिन पूर्व सभी पार्षदों को दिए जाने के बजाए उसे बैठक से ठीक एक दिन पहले बल्कि वह भी बैठक दिवस की पूर्व रात्रि को ही प्रदाय किया जाता है। ऐसी स्थिति में विपक्षी दल के पार्षद पूरे एजेंडे को ठीक से पढ़ समझ भी नहीं पाते है। वहीं सत्ताधारी दल के पार्षद अपनी इच्छा अनुसार कोई प्रस्ताव शामिल भी नहीं करवा पाते। इसी तरह बैठक दौरान महज कुछ ही घंटे में सैकड़ों प्रस्तावों को सर्वसम्मति से पारित करना मान लिया जाता है। चूंकि प्रत्येक प्रस्ताव पर ना तो विस्तार से कोई चर्चा होती है और न ही बैठक दौरान ही उसकी प्रोसेडिंग लिखी जाती है। ऐसी स्थिति में अपनी असहमति या विरोध दर्ज कराने वाले पार्षद बैठक में तो चाहे नियम कानून का हवाला देते हुए भरपूर चिल्ला चोट कर लें लेकिन वह तमाम बातें प्रोसेडिंग में नहीं आती है। चूंकि बैठक समाप्त होने के बाद अध्यक्ष अपनी सुविधा अनुसार प्रोसेडिंग लिखवाते है। जिसमें किसी पार्षद का किसी भी विषय पर कोई विरोध दर्ज उल्लेखित नहीं किया जाता है। ऐसी स्थिति में भविष्य में किसी प्रस्ताव को लेकर शिकवा शिकायत भी की जाती है तो जांचकर्ता अधिकारी प्रस्ताव को सर्वसम्मति से पारित होना और प्रस्ताव दौरान कोई विरोध दर्ज नहीं होने की प्रोसेडिंग देखकर संबंधित शिकायत को खारिज कर देता है। अब ऐसी स्थिति में पार्षदों के पास केवल अविश्वास प्रस्ताव ही एकमात्र विकल्प शेष रहता है। लेकिन सरकार ने अब इस विकल्प को भी अपने इस फैसले से लगभग समाप्त कर दिया है। अविश्वास प्रस्ताव के भय से मुक्त अध्यक्षों की कार्यशैली कहीं आने वाले समय में सरकार के लिए आत्मघाती कदम साबित न हो। खैर भला सरकार की सरकार कौन हो सकता है? सरकार का फैसला आखिर सर्वमान्य जो होता है। वैसे भी मध्यप्रदेश में विपक्ष केवल नाम का दरोगा है। ऐसी स्थिति में जो सरकार ने किया वही सच है।