दिनेश निगम ‘त्यागीÓ, भोपाल। प्रदेश की सभी 29 लोकसभा सीटों के लिए मतदान निपट जाने के बाद से जीत को लेकर दावों का सिलसिला जारी है। भाजपा सभी 29 सीटें जीतने का दावा कर रही है, तो कांग्रेस का कहना है कि हम डबल डिजिट में सीटें जीत कर चौंकाएंगे। तटस्थ विश्लेषकों में अधिकांश की राय है कि भाजपा क्लीन स्वीप नहीं करेगी, टक्कर वाली कुछ सीटें कांग्रेस भी जीतेगी। विश्लेषक यह आंकड़ा 2 से 5 तक बता रहे हैं। ऐसे दावों-प्रतिदावों के बीच कांग्रेस का एक वर्ग और मुकाबले में रहने वाले कुछ प्रत्याशी मानते हैं कि प्रदेश में कांग्रेस पूरी ताकत से चुनाव लड़ती नजर नहीं आई। चुनाव के दौरान प्रबंधन नाम की कोई चीज नहीं थी। संगठन की ओर से कांग्रेस प्रत्याशियों को ताकत नहीं मिली। प्रदेश कांग्रेस कार्यालय में बैठक में हिस्सा लेने आए इन प्रत्याशियों का कहना था कि इस कुप्रबंधन के कारण कांग्रेस कुुछ ऐसी सीटें भी हार सकती है, जिन्हें जीता जा सकता था। यह अव्यवस्था इसलिए भी रही क्योंकि कमलनाथ को ठीक चुनाव से पहले हटा दिया गया और नए प्रदेश अध्यक्ष जीतू पटवारी संगठन में अपनी मजबूत पकड़ बना नहीं पाए। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह जैसे नेता अपने क्षेत्रों सिमट कर रह गए।
लिए गए नौसिखिया जैसे कई फैसले
कमलनाथ को हटा कर जीतू पटवारी की प्रदेश अध्यक्ष पद पर ताजपोशी फिर भी लोकसभा चुनाव से काफी पहले विधानसभा चुनाव के तत्काल बाद हो गई थी। यह बात अलग है कि वे न संगठन खड़ा कर पाए और न ही अपनी पकड़ बना पाए। चुनाव की तैयारी हमेशा पहले से होती है और ठीक चुनाव के दौरान दायित्वों में अदला-बदला नहीं की जाती लेकिन जब प्रचार अभियान शबाब पर था, तब अचानक युकां का प्रदेश अध्यक्ष बदल दिया गया। कहा गया कि विक्रांत भूरिया खुद पद छोड़ना चाहते हैं और उनके स्थान पर मितेंद्र सिंह को जवाबदारी सौंप दी गई। नतीजा यह हुआ कि चुनाव के लिए जो टीम तैयार हुई थी, वह घर बैठ? गई या विक्रांत के साथ रतलाम-झाबुआ सीट में प्रचार के लिए जा पहुंची। इसी प्रकार आधा दर्जन से ज्यादा लोकसभा के प्रभारी भी प्रचार अभियान के दौरान बदल दिए गए, जबकि इसकी जरूरत नहीं थी। ऐसे निर्णयों से कांग्रेस को कई क्षेत्रों में नुकसान उठाना पड़ा।
चुनाव अभियान समिति नहीं रही प्रभावशील
लोकसभा से बड़ा कोई चुनाव नहीं होता। इसकी तैयारी के लिए कई समितियां काम करती हैं, लेकिन पहली बार देखने को मिला कि कांग्रेस की सबसे प्रमुख चुनाव अभियान समिति तक काम नहीं कर रही थी। इस समिति का गठन ही नहीं हुआ था। इस समिति का प्रमुख कौन था, किसी को नहीं मालूम। दूसरी कोई समिति प्रभावशील थी ही नहीं। पीसीसी में हुई बैठक में हिस्सा लेने आए कई प्रत्याशियों का कहना था कि उनके यहां की जिला इकाईयां निष्क्रिय पड़ी थीं। कांग्रेेस के इतने विभाग और प्रकोष्ठ हैं, वे किसी क्षेत्र में सक्रिय दिखाई नहीं पड़े। सबसे महत्वपूर्ण संगठन का दायित्व होता है कि चुनाव के दौरान विभिन्न समाजों की बैठकें कर उन्हें साधने की कोशिश करे। लोकसभा चुनाव के प्रचार अभियान के दौरान ऐसा कोई प्रयास होता दिखाई नहीं पड़ा। ऐसे में भाजपा को टक्कर देने वाले प्रत्याशी यदि संगठन से नाराज हैं, तो इसमें गलत क्या है?
कांग्रेस की भगदड़ रोकने नहीं हुई कोशिश
जीतू पटवारी की दूसरी बड़ी असफलता है कांग्रेस में मची भगदड़ को न रोक पाना। वे इसे रोकने की कोशिश करते भी नजर नहीं आए। नतीजा यह हुआ कि कांग्रेस नेताओं की खेप लगभग हर रोज पार्टी छोड़कर भाजपा ज्वाइन करती रही। इससे उन प्रत्याशियों और उनके समर्थकों के मनोबल पर असर पड़ा जो भाजपा को कड़ी टक्कर दे रहे थे। इससे भी पता चला कि पटवारी संगठन में अपनी मजबूत पकड़ नहीं बना पाए। तीन विधायक पार्टी छोड़कर चले गए और सुरेश पचौरी जैसा बड़ा नेता भी। विधायकों का पार्टी छोड़कर जाना नेता प्रतिपक्ष उमंग सिंघार की भी असफलता है। भाजपा ने ऐसा कर यह माहौल बनाने की कोशिश की कि कांग्रेस हार रही है, इसलिए भगदड़ है। टक्कर वाली सीटों में इस माहौल का कांग्रेस की संभावनाओं पर प्रतिकूल असर पड़ना स्वाभाविक है।