यह नाथ-दिग्विजय के युग के अंत का संकेत तो नहीं….!

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दिनेश निगम ‘त्यागी’

 

यह नाथ-दिग्विजय के युग के अंत का संकेत तो नहीं….!

कांग्रेस आलाकमान वरिष्ठ नेताओं कमलनाथ और दिग्विजय सिंह से नाराज दिखता है। उसने मान लिया है कि प्रदेश विधानसभा के चुनाव में पार्टी की बुरी हार इन दोनों नेताओं के अति आत्मविश्वास और सभी नेताओं को साथ लेकर न चलने के कारण हुई है। संभवत: इसीलिए प्रदेश को लेकर लिए जा रहे किसी निर्णय में उनकी राय नहीं ली जा रही है। पहले जीतू पटवारी को प्रदेश अध्यक्ष और उमंग सिंघार को नेता प्रतिपक्ष बनाने में ऐसा हुआ। अब लोकसभा चुनाव 2024 के लिए गठित केंद्रीय चुनाव घोषणा पत्र समिति में भी इन दोनों वरिष्ठों को नजर अंदाज कर दिया गया। पी चिदंबरम की अध्यक्षता में गठित इस समिति में इनके स्थान पर आदिवासी विधायक ओंकार सिंह मरकाम को जगह दी गई है। गौर करने लायक यह भी है कि जीतू पटवारी को कमलनाथ पसंद नहीं करते थे और उमंग सिंघार ने दिग्विजय सिंह के खिलाफ मोर्चा खोल रखा था। फिर भी इन दोनों को महत्वपूर्ण जवाबदारी सौंपी गई। घोषणा समिति में वरिष्ठों को शामिल करने की उम्मीद की जाती है लेकिन युवा ओंकार को चुना गया। पटवारी, सिंघार और मरकाम तीनों राहुल गांधी कैम्प से हैं। यह प्रदेश से कमलनाथ-दिग्विजय युग के अंत का संकेत तो नहीं है? बता दें, छत्तीसगढ़ के भूपेश बघेल, टीएस सिंहदेव और राजस्थान के अशोक गहलोत, सचिन पायलट को काम मिल गया है। जबकि यहां भी कांग्रेस की हार हुई थी।

कांग्रेस में कलह के कैक्टस, कमलनाथ ने तोड़ी परंपरा…

प्रदेश में करारी हार और नेतृत्व परिवर्तन के बाद कांग्रेस में एक बार फिर कलह के कैक्टस दिखाई देने लगे हैं। इसकी वजह बन रहे हैं पार्टी के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कमलनाथ। प्रदेश अध्यक्ष बनने के बाद जीतू पटवारी भोपाल चार्ज लेने पहुंचे तो कमलनाथ ने पुरानी परंपरा ही तोड़ दी। प्रदेश में होने के बावजूद उन्होंने कार्यक्रम से दूरी बनाई। पार्टी की परंपरा है कि जब नया अध्यक्ष कार्यभार ग्रहण करने आए तो निवृत्तमान होने वाले को मौजूद रहना चाहिए। जब अरुण यादव अध्यक्ष बने तब कांतिलाल भूिरया मौजूद थे और कमलनाथ बने तो अरुण यादव। नाथ ने नाराजगी के संकेत जीतू पटवारी के अध्यक्ष बनने से पहले ही दे दिए थे, जब पार्टी के प्रदेश प्रभारी रणदीप सुरजेवाला और राष्ट्रीय संगठन प्रभारी महामंत्री वेणुगोपाल भोपाल में कांग्रेस विधायक दल की बैठक लेने आए थे और कमलनाथ ने इसमें हिस्सा नहीं लिया था। संभवत: उन्हें बदलाव की भनक लग चुकी थी। जीतू के चार्ज लेने के दौरान नाथ के साथ दिग्विजय सिंह सहित कोई वरिष्ठ नेता शामिल नहीं था। इसका मतलब तो यह हुआ कि ये आलाकमान द्वारा किए गए बदलाव से खुश नहीं हैं। साफ है कि कांग्रेस हार कर भी नहीं सुधर रही है। हालात ऐसे ही रहे तो कांग्रेस एकजुट होकर लोकसभा का चुनाव कैसे लड़े पाएगी, यह बड़ा सवाल है?

क्या ‘चौहत्तर’ की बजाय ‘तेहत्तर बंगले’ होगा नाम…

राजधानी के ’45 बंगला’ और ’74 बंगले’ नाम, संभवत: वहां बने सरकारी बंगलों की संख्या के कारण ही रखे गए होंगे। ’74 बंगले’ से अब एक बंगला कम हो गया है, क्योंकि पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने दो बंगलों को मिलाकर एक कर दिया है। एक बंगला उन्हें आवंटित था। दूसरे पड़ोस के बंगले की बाउंड्रीवाल तुड़वाकर उन्होंने उसे भी अपने बंगले में मिला लिया। इस दूसरे बंगले में पहले पूर्व नेता प्रतिपक्ष स्व.जमुना देवी और इसके बाद भाजपा के पूर्व अध्यक्ष स्व नंदकुमार सिंह चौहान रहते थे। अब चूंकि दोनों बंगले एक हो गए, इसलिए एक बंगला घट गया। शिवराज का यह बंगला इस समय चर्चा में है। चर्चा इसलिए भी है क्योंकि शिवराज के बंगलों के संधारण और साज-सज्जा में बड़ी राशि खर्च की गई है। यह जानकारी विधानसभा में पूछे गए एक सवाल के जवाब में सामने आई है। राशि उसी तरह खर्च की गई है, जिस तरह दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने की और जांच का सामना कर रहे हैं। यहां सवाल यह पैदा हुआ कि एक बंगला कम होने के बाद क्या अब ’74 बंगले’ का नाम ’73 बंगले’ रखा जाएगा। वैसे भी भाजपा की सरकार नाम बदलने में अव्वल है। राजधानी में ही भाजपा की सरकार कई इमारतों, सड़कों, बांध, रेल्वे स्टेशन और गांवों के नाम बदल चुकी है।

यह व्यवहार तो विरोधी दल की सरकार जैसा…!

मुख्यमंत्री बनने के बाद डॉ.मोहन यादव सीएम सचिवालय सहित प्रमुख पदों पर अपनी पसंद के अफसरों की तैनाती करें, यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है। यह होना भी चाहिए। इसी के तहत पहले मुख्यमंत्री के प्रमुख सचिव मनीष रस्तोगी हटे, इसके बाद जनसंपर्क आयुक्त मनीष सिंह और अब मुख्यमंत्री सचिवालय में पदस्थ नीरज वशिष्ठ की रवानगी हो गई। ये तीनों पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के भरोसे के अफसर थे। शिवराज के लगातार मुख्यमंत्री रहने के कारण ये अफसर लंबे समय से जमे थे। इसके कारण प्रशासनिक जड़ता भी आ गई थी। मोहन यादव के मुख्यमंत्री बनने के बाद इन्हें हटाया जा रहा है, यहां तक तो ठीक है लेकिन हटाए गए किसी अफसर को कोई दायित्व नहीं दिया जा रहा, इसे कैसे ठीक ठहराया जा सकता है? मनीष रस्तोगी, मनीष सिंह और नीरज वशिष्ठ हटाए गए, लेकिन किसी को कोई काम नहीं दिया गया। इससे ऐसा लगता है कि प्रदेश में विरोधी दल की सरकार आ गई, जो शिवराज समर्थक अफसरों को निपटा रही है, जबकि ऐसा नहीं है। सत्ता अब भी भाजपा की ही है, सिर्फ नेतृत्व करने वाला बदला है। संभव है यह मुख्यमंत्री यादव के संज्ञान में न हो। उन्हेंं इस ओर ध्यान देकर बेवजह आलोचना से बचना चाहिए। अफसरों को हटाने के साथ उन्हें कोई दायित्व भी दिया जाना चाहिए।

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