परिवर्तन प्रकृति का नियम है। इन दिनों प्रदेश की राजनीति भी पीढ़ी परिवर्तन के दौर से गुजर रही है। प्रदेश कांग्रेस में करीब चार दशक के बाद कमल नाथ और दिग्विजय सिंह की जगह युवा नेतृत्व ने जिम्मेदारी संभाली है। संगठन आधारित भाजपा से अलग कांग्रेस नेता केंद्रित पार्टी रही है। इसलिए कांग्रेस में गुटबाजी भी भाजपा से ज्यादा रही है। मगर फिलहाल सभी गुटों से नए अध्यक्ष को भरपूर समर्थन मिलता दिख रहा है। ताजपोशी के बाद राजेश चौकसे, गिरधर नागर सहित उन तमाम वरिष्ठ नेताओं ने जीतू को सम्मानित किया, जिनकी पहचान कमल नाथ और दिग्विजय गुट से नजदीकी के लिए है। अब जीतू गुटबाजी को बढ़ावा देते हैं या संगठन को खड़ा करते हैं यह भविष्य बताएगा। मगर फिलहाल युवा नेतृत्व को वरिष्ठों का आशीष कांग्रेस के लिए अच्छा संकेत है।
मालवा- निमाड़ से चलेगी प्रदेश की सत्ता
प्रदेश की राजधानी भले ही भोपाल हो, लेकिन सत्ता का रास्ता मालवा-निमाड़ से होकर गुजरता है, यह तथ्य सर्वविदित है। मगर अब प्रदेश की राजनीति की दिशा भी मालवा-निमाड़ से ही संचालित होगी। प्रदेश के नए मुख्यमंत्री डा. मोहन यादव उज्जैन से हैं वहीं उपमुख्यमंत्री जगदीश देवड़ा मंदसौर जिले से आते हैं। विपक्ष की अगुआई के लिए भी कांग्रेस ने अंचल को ही कमान सौंपी है।इंदौर के जीतू पटवारी अब प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष हैं और पूरे प्रदेश में कांग्रेस के विरोध प्रदर्शन की अगुआई वे ही करेंगे। वहीं विधानसभा में पार्टी ने विपक्ष का नेता जिन उमंग सिंघार को बनाया है वे धार जिले के गंधवानी से आते हैं। प्रदेश में राजनीति का केंद्र बिंदू होने का कितना फायदा अंचल को मिलता है यह भविष्य की बात है। फिलहाल राजनीति के केंद्र में होने के ‘गौरव’ का अनुभव मतदाता कर सकते हैं।
बातें हैं बातों का क्या
राजनीति की राह भी आसान नहीं है। पार्टी के लिए पांच साल तक झंडा उठाने के बाद उम्मीद रहती है कि चुनाव के समय टिकट मिलेगा। टिकट की कश्मकश किसी एक की पूरी हो भी जाती है तो परिणाम की चिंता सताने लगती है। अब परिणाम भी आ चुके हैं और भाजपा की सरकार भी बन गई है। मगर नेताओं को मंत्रालय की चिंता सता रही है। अपने-अपने स्तर पर संपर्क सूत्र आजमाए जा रहे हैं। मगर भाजपा नेतृत्व के चौंकाने वाले अंदाज ने सभी को मौन कर रखा है। कोई नहीं जानता कि दिल्ली से क्या फरमान आएगा। राजनीति के गलियारों में चर्चाएं तमाम हैं, लेकिन बातें हैं बातों का क्या…। वैसे मंत्रिमंडल में इंदौर को लंबे समय से वैसा महत्व नहीं मिला, जितना योगदान सरकार बनाने में रहता है। अब देखना है कि इस बार किसकी लाटरी खुलती है।
जिन चेहरों को दी जिम्मेदारी चेहरा दिखाने नहीं आए
कांग्रेस में बीते दिनों कार्यकारी शहर अध्यक्ष बनाने की कवायद ऐसी चली कि हर दिन नया अध्यक्ष सामने आ रहा था। पुरानी कहावत है ज्यादा दायी जापा बिगाड़ देती है। मगर सभी को साधना था तो ‘जिम्मेदारी’ खुले हाथ से बांटी गई। उम्मीद थी कि ज्यादा अध्यक्ष होंगे तो पार्टी के प्रदर्शनों में भीड़ भी ज्यादा होगी। इन दिनों कांग्रेस के निशाने पर भाजपा से ज्यादा ईवीएम मशीन है। पार्टी को लगता है उसे भाजपा ने नहीं, ईवीएम ने हराया है। स्थानीय नेताओं ने बैलेट पेपर से लोकसभा चुनाव कराने की मांग को लेकर प्रदर्शन किया। मगर हालिया अध्यक्ष बने चेहरे ही प्रदर्शन में चेहरा दिखाने नहीं पहुंचे। विरोध की तख्तियां उन्हीं चेहरों के हाथों में थी, जो हर प्रदर्शन का हिस्सा होते हैं। मगर ये चेहरे पदों पर स्थान नहीं पा पाते। भाजपा और कांग्रेस के संगठन में यही अंतर है। भाजपा जैसे परिणाम के लिए संगठन में जमीनी कार्यकर्ताओं को सम्मान देना होगा।
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