मुद्दा : महिलाओं के पहनावे पर बयानबाजी

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अनोखा तीर, हरदा। मौलिकता और स्वतंत्रता के अधिकार का जितना दुरुपयोग हमारे देश में होता है शायद ही किसी और देश में होता होगा। मौलिकता के नाम पर हम किसी को कुछ तो भी बोल दे या सार्वजनिक रुप से उसकी इज्जत की धज्जियां उड़ा दे फिर भी हम पाक साफ कहलाए, क्या यही मौलिकता का अधिकार है? स्वतंत्रता के नाम पर हम समाज के सामने क्या परोसने का प्रयास कर रहे है। अब अगर हमारी इसी स्वच्छंदता या फुहड़ता को लेकर अगर किसी ने ऊंगली उठा दी तो वह पूरे समाज या वर्ग की तौहीन हो गई? आखिर हमारी इस उदंडता पर विराम कैसे लगेगा? जब कोई भी हमें आईना दिखाने का प्रयास करें अथवा संस्कृति के साथ किए जाने वाले खिलवाड़ पर बेखौफ विचार रखे तो वह दोषी करार दे दिया जाए। राजनैतिक दल उनके इन विचारों को राजनीति का मुद्दा बनाकर समाज के बीच वोटों की रोटी सेंकने लगे, यह कहां तक उचित है। मैं यहां केवल भाजपा के राष्ट्रीय महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय द्वारा महिलाओं के पहनावे को लेकर कही गई बात पर उनका पक्ष लेने के लिए ही नहीं बल्कि देश के ऐसे उन तमाम नेताओं, धर्मगुरुओं, समाज के हितचिंतकों के बयानों पर गाहे बगाहे होने वाले विवादों को लेकर बात कर रहा हूं। जब भी कोई नेता या धर्मगुरु महिलाओं द्वारा अपनाई जाने वाली पाश्चात्य संस्कृति की वेशभूषा को लेकर सवाल उठाता है तो वह पूरे महिला समाज का दोषी करार दे दिया जाता है। यह मान लिया जाता है कि उस व्यक्ति ने समूची महिला समाज का सार्वजनिक अपमान किया है। आखिर ऐसा क्यों? क्या उन्होंने सार्वजनिक मंच से कड़वा सच बोल दिया इसलिए? क्या वास्तव में पाश्चात्य संस्कृति की अंधी दौड़ में हम भारतीय सभ्यता और संस्कृति को तिलांजली देते हुए लक्ष्मण रेखा पार नहीं कर रहे। क्या हमारी वर्तमान पीढ़ी जिस तरह की पोशाकों का उपयोग कर रही है उन्हें देखकर उन्हीं के परिवार के बड़े बुजुर्ग आंखें नहीं झुका लेते? आखिर अंग प्रदर्शन करने वाले इन परिधानों को लेकर समाज के हितचिंतक होने के नाते किसी के भी द्वारा कहीं जाने वाली बात इतना बड़ा पाप हो जाती है कि उसके विरूद्ध आरोप प्रत्यारोप ही नहीं बल्कि धरना प्रदर्शन जैसे हथकंड़े अपनाए जाने लगे। मौलिकता और स्वतंत्रता जैसे अधिकारों का सहारा लेकर संबंधित के विरूद्ध अकारण ही मुद्दा बनाकर हम इस स्वच्छंदता को और बढ़ावा देने का कार्य नहीं कर रहे है? बीते दिनों भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने अपनी बात रखने से पहले यह भी कहा था कि हम माता बहनों को देवी स्वरुपा मानते है। उनका सम्मान भी देवी के रुप में करते है, लेकिन वर्तमान में जिन परिधानों का वह उपयोग कर रही है वह कहां तक ठीक है। बिल्कुल सही कहा, किसी न किसी को तो इस प्रवृत्ति पर अंकुश लगाने के लिए आगे आना ही होगा। वैसे इस विषय पर बोलने वाले कैलाश विजयवर्गीय इकलौते नेता नहीं है बल्कि देश के कई नेताओं ने अलग-अलग मंचों से अनेकों बार चिंता जाहिर की है। जब भी किसी ने इस तरह की बात उठाई तो उसे महिला विरोधी ही करार दिया गया। हमारी भारतीय सभ्यता और संस्कृति पर होते इस कुठाराघात को लेकर कलमकारों ने भी अपनी रचनाओं के माध्यम से समय समय पर समाज को संदेश देने का कार्य किया है। यहां मुझे देश के प्रसिद्ध व्यंग्यकार और कवि ओमप्रकाश आदित्य की वह पंक्तियां याद आती है जब उन्होंने फैशन के नाम पर कम होते महिलाओं के तन के परिधानों पर एक रचना पाठ किया था। जिसमें उन्होंने कहा था कि –

हेयर कटिंग करवाओं मत प्राण प्यारी,

कहीं कौऊ काले नाग नाई को न फुंफकार दें।

हिरण से नयन को ज्यादा न नचाया करो,

कोई छैला बाबू इन हिरणों को न पछाड़ दे।

नंगा सिर लिए खुले में ना घुमा करों,

मांग है कि सीमांत शत्रु झंडा ही ना गाड़ दें।

भारत में तन तेरा लंदन में मन,

गोरी तेरे मुख पर इंग्लैंड लिख दूं,

सभ्यता का युग है जी हम क्यों असभ्य रहे,

नंगा है उजेला चलों अंधेरे में खिसके।

ओमप्रकाश आदित्य जी ने अपनी इस रचना के माध्यम से महिलाओं के परिधानों पर ही व्यंग्य प्रहार करते हुए पीड़ा व्यक्त की थी कि जब आपका तन भारत में है तो मन को लंदन और इंग्लैंड की सैर कराते हुए वहां की वेशभूषाओं को आखिर क्यों अपनाती है? अगर आपके द्वारा अपनाई जाने वाली इस पाश्चात्य संस्कृति को ही आप सभ्यता मानती है तो फिर हमसे सभ्य होने की उम्मीदें क्यों की जाती है? आप इन विदेशी फैशन को अपनाकर सभ्य है तो भला हम असभ्य क्यों? ऐसे अनेक कवियों ने हमारी भारतीय संस्कृति और सभ्यता पर हावी होती इस पाश्चात्य संस्कृति को केन्द्रित करते हुए रचनाएं प्रस्तुत की है। लेकिन जब समाज में यही बात हमारे समाज के नेतृत्वकर्ताओं द्वारा कही जाती है तो वह राजनीति का मुद्दा क्यों बन जाती है? नेता हमारे समाज के एक बड़े वर्ग का नेतृत्वकर्ता होता है और उसे समाज में आने वाली उन तमाम दुष्प्रवृत्तियों पर बेखौफ होकर बोलना भी चाहिए और उस पर अंकुश लगाने की दिशा में कदम भी उठाना चाहिए। मैं ऐसे प्रयासों की सराहना करता हूं और ऐसा प्रयास करने वाले का विरोध करने वालों की निंदा भी करता हूं।

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