Prhalad Sharma

विशेष संपादकीय – अमृत के मान का महोत्सव

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प्रहलाद शर्मा

 मां भारती के भाल पर आजादी का गुलाल लगाने के लिए देश के असंख्य रणबांकुरों ने अपने प्राण न्यौछावर किए। रूखी-सूखी रोटी और सीने पर गोली खाकर जय हिंद का नारा लगाते जिन मतवालों ने राष्ट्रीय ध्वज का मान बढ़ाया था। वास्तव में आज यह उनके बलिदानों को श्रद्धांजलि का दिवस है। बेशक हम पचहत्तर वर्ष पहले गुलामियों की बेढ़ियां काटकर आजादी का अमृत निकालकर लाए थे। लेकिन इन ७५ वर्षों में समय के साथ-साथ हमें अमृतपान कराने वाले उन अमर शहीदों के बलिदानों को भूलते हुए अपने विकास पर ध्यान केन्द्रित करते रहे। मैं यह कतई नहीं कहता कि इन ७५ वर्षों में जिन हाथों में देश की बागडोर रही, उन्होंने देश के सर्वांगीण विकास की दिशा में क्या किया और क्या नहीं किया। इस बात को नकारा भी नहीं जा सकता कि ७५ वर्षों की इस यात्रा में देश ने हर मोर्चे पर अपनी कामयाबी के ध्वज गाढ़ते हुए दुनिया को दिखया है कि भारत प्रगतिशील और विचारवान देश है। जो विश्व कुटुंब की भावना को लेकर जीव मात्र के लिए प्रार्थना भी करता है और काम भी। आज जब देश के शीर्ष नेतृत्व प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा आजादी के अमृत महोत्सव के तहत हर घर तिरंगा घर-घर तिरंगा का आह्वान किया गया तो देश के गांव, टोले और मजरे तक लोगों ने जिस उत्साह के साथ इस स्वतंत्रता दिवस पर्व को लोक पर्व का स्वरूप दिया है वह उत्साहित करने वाला है। नि:संदेह यह राष्ट्र प्रेम को जागृत करने वाला एक ऐसा अभियान है, जो केवल भारत में ही नहीं, बल्कि भारत की सीमाओं के पार उन देशों में भी उत्साह से मनाया जा रहा है, जहां भारतीय निवास कर रहे हैं। विकास की दृष्टि से काफी कुछ हुआ है, लेकिन बहुत कुछ किया जाना शेष है। हमने देश के आक्रमणकारियों से तो ७५ वर्ष पहले निजात पा ली। किन्तु देश के भीतर जो समाजविरोधी और राष्ट्रविरोधी तत्व हैं उनसे उसी सख्ती और तेवर से निजात पाना होगा, जिस तेवर के साथ सीमा पर हमारे जवान इस तिरंगे के मान में तैनात हैं। गांधी के अहिंसावादी सिद्धांत से यह राष्ट्रद्रोही और समाजविरोधी तत्व समझने वाले नहीं है कि जिस देश की आजादी में उन्हें खुली हवा में श्वांस लेकर मौलिकता का अधिकार प्रदान किया है, वह उनका वास्तविक पोषक राष्ट्र है। सीधे शब्दों में कहा जाए तो यह राष्ट्रद्रोही तत्व भारत और माँ भारती के प्रति अपनी निष्ठा की बजाय इसके दामन पर जिस तरह हिंसा का दाग लगाने का दूषित कृत्य कर रहे हैं, वह अक्षम्य और राष्ट्रद्रोह की श्रेणी से कमतर नहीं है। हमें विश्वास है कि हमारे देश का नेतृत्व जिस अदम्य साहस के साथ विश्व को अपना लोहा मनवाने का प्रयास कर रहा है, उसी दबंगई से देश के भीतर व्याप्त इस बुराई पर भी विजय प्राप्त करेंगे। आज मैं देश के उन तमाम देश प्रेमियों को नमन करता हूं, जिन्होंने राष्ट्रध्वज का मान बढ़ाते हुए देश के उन अमर शहीदों के बलिदान को अक्षुण्य बनाए रखने का कार्य किया है। आज गांव, गली और चौबारों पर शान से लहराता तिरंगा मन को आह्लादित करते नजर आ रहा है।

आज पचहत्तर साल बीत गए समझने और समझाने में कि आजादी का मतलब क्या है। हम तो यही समझते रहे अभी तक कि आजादी याने कि जीवन को अपनी लय में जीना, जो मर्जी आए वह करना और साल के इस दिन तिरंगे को लहराकर जन-गण-मन गाना। जिंदाबाद के नारे लगाना और उन शहीदों की शान में गीत गाना। देश ने जब से होश संभाला है, तब से आज तक वह देशवासियों को यही समझाता आ रहा है कि देशभक्ति के बिना संभव कुछ भी नहीं है। देश है तो हम हैं, लेकिन कोई समझने को राजी नहीं। सच बात तो यह है कि भौतिकता की अंधी दौड़ में देशवासियों का जीवन निजी होकर रह गया है। वह अपने ही प्रपंचों से बाहर नहीं निकल पा रहा है, हर व्यक्ति अपने ही बारे में सोचता रहा। रोजी-रोटी का संघर्ष उसे राष्ट्रप्रेम से दूर करता रहा। उसे बार-बार यह बताना जरूरी हो गया कि जिस देश में उसने जन्म लिया है उसके प्रति उसके कुछ दायित्व भी है। दुर्भाग्य से दायित्व बोध कभी हुआ ही नहीं। सिर्फ स्कूल के दिनों में ही स्वतंत्रता दिवस का इंतजार रहता था। तब इतना उत्साह रहता था कि जिस दिन भी मौका मिलेगा उस दिन सरहद पर देश की रक्षा के लिए सिर कटाने में जरा भी हिचक नहीं करेंगे, पर सोचते ही रह गए। सरहद ही नहीं बल्कि देश की रक्षा के लिए न जाने कितने संकट अंदर ही आ खड़े हुए हैं जो सरहद से कही अधिक भयावह और विध्वंशकारी हैं। देश के हर प्रदेश के हर टोले मजरे और गांव कस्बे, शहर और महानगरों से आने वाली हवा में एक अजीब तरह की गंध है, जिससे महसूस होता है कि कही कुछ ठीक नहीं है, एक अनमनापन देश में व्याप्त है। आजादी का अमृत तो पहले ही पी चुके हैं लेकिन आजादी को अमर बनाए रखने का कृत्य आज भी नहीं कर पा रहे। आजादी की अमरता का नारा लगाने से यह बात सार्थक होनी होती तो बार-बार नारे लगाने की जरूरत महसूस न होती। यह समझना होगा कि अमृत कोई द्रव्य नहीं है जिसे पीने से अमरता मिलती है। बल्कि यह जीवन शैली है, जिस पर चलते हुए भारत विश्व गुरु बना। आधुनिकता की दौड में हमने अपने उन जीवनमूल्यों को गंगा में बहाकर उसे इतना कलुसित कर दिया कि हिमालय भी क्षुब्ध होता दिखाई देने लगा है। वर्तमान को लेकर जितनी आशंकाएं मन को विचलित किए हुए हैं, उतना ही डर भविष्य की कल्पना मात्र से हो रहा है। बीती पीढ़ी खटिया पर कमर सीधी करते हुए कह रही है कि उनके दिन अच्छे थे, वर्तमान कह रहा है अच्छे दिन तो बीत गए और नवजात दुविधा में है। आजादी के पचहत्तर साल बाद भी यह कहने की स्थिति में कोई नहीं है कि अच्छा क्या था और बुरा क्या है। इससे बुरा और क्या हो सकता है कि देश का युवा ही देशभक्ति के पर्यावाची शब्दों की तलाश कर रहा है। युवा उस अंधी खोह में जा बैठा है, जहां उसे सिर्फ अंधकार ही नजर आ रहा है। वह देश से मांग रहा है पर कुछ देना नहीं चाह रहा। आर्थिक सोच इतनी हावी हो चुकी हंै कि जीवन इसके इर्द-गिर्द चक्कर काट रहा है। रोटी कपड़ा और मकान से बाहर निकलने के संघर्ष में देश गौंण हो गया। जबकि इस बात में कोई दोराय नहीं आज बीते ७५ वर्षों पर नजर डाली जाए तो हमारे देश का हर क्षेत्र में उल्लेखनीय विकास हुआ है। बावजूद इसके वैचारिक रूप से देश के लोग और अधिक कमजोर हो गए। जिस वैचारिकता के प्रवाह को स्वामी विवेकानंद ने शुरू किया था उसकी धारा तो न जाने कब की अवरूद्ध हो चुकी है। यह जरूर है कि कुछ राजनीतिक गलतियां हुई हैं जिसने निराशा को जन्म दिया है। लेकिन यह गलतियां सिर्फ राजनीतिक नहीं बल्कि उस जन की हैं, जो इस देश का है उसने स्वयं को भारतीय न समझते हुए जाति, धर्म, वर्ग और संप्रदाय में बांट लिया। आज स्वयं को भारतीय कहने में ही संकोच कर रहे हंै। प्रकृति ने भारत को इतना कुछ दिया है, यहां के वाशिंदों को प्रबल मानसिक ताकत दी है कि वह वैचारिक विभिन्नता के बाद भी एकता में बंधा हुआ है। कुछ तो है भारत की मिट्टी में जो उसे विश्व में सर्वोच्च बनाए है। मिट्टी के इस तत्व को पहचानने की जरूरत अब महसूस हो रही है। भारत में ज्ञान का अकूत भंडार है लेकिन हमने प्रकृति के भंडारों का दोहन नहीं बल्कि शेषण किया। आजादी के इस अमृत महोत्सव को मनाने का उत्साह जो इस समय देश में दिखाई दे रहा है वह अनंतकाल तक बना रहे कामना तो यही है। समस्याएं तो अंतहीन है चाहे वह कहीं भी हों और संघर्ष भी स्थाई है। बावजूद इसके हमारी कोशिश होना चाहिए हम वर्तमान को बेहतर बनाने और भविष्य को सुखद बनाने की कल्पना करते हुए नए भारत के निर्माण की नींव रखे। परिवार है तो समाज है और समाज है तो देश है। पर यह समझना होगा कि देश है तो हम हैं और हम हैं तो ही विश्व विजेता हो सकेंगे। वैचारिक आजादी के इस अश्वमेघ का घोड़ा कही रूकना नहीं चाहिए तभी तो सही मायने में आजादी के अमृत का मान रख पाएंगे। यह अमृत के मान का महोत्सव है, हर देशवासी के मान का महोत्सव है, यह स्वतंत्रता के मान का महोत्सव है, इसे तीज त्यौहार की तरह ही मनाएं। आजादी के इस अमृत महोत्सव पर सभी देशवासियों को शुभकामनाएं। जय हिन्द।

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