उद्गम स्थल से ही संकट से जूझ रही नर्मदा 

38 वर्षों में अढ़ाई कोस चली नीलगिरी कटाने की सरकारी योजना 

दैनिक अनोखा तीर, हरदा। मध्यप्रदेश की जीवनरेखा कहलाने वाली नर्मदा नदी का मध्यप्रदेश की आर्थिक समृद्धि में बड़ा योगदान है। अमरकंटक से चलकर रत्ना सागर में समाहित होने से पहले वह मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, गुजरात ही नहीं बल्कि राजस्थान को भी अपने जल से पल्लवित पुष्पित करने का कार्य करती हैं। मध्यप्रदेश के इंदौर, भोपाल, जबलपुर, देवास जैसे लगभग 35 शहरों और लाखों हेक्टेयर कृषि भूमि की प्यास बुझाने वाली मां नर्मदा पर आज हर तरफ से संकट छाया हुआ है। हम उसका दोहन तो प्रकृति के अस्तित्व में आने पश्चात से ही अर्थात अनादि काल से करते आएं हैं, लेकिन अब उसका शोषण करने लगे हैं। शोषण भी इस हद तक कि उसके अस्तित्व पर ही खतरा मंडराने लगा है। पिछले दिनों मुझे हरदा के पर्यावरण प्रेमी गौरीशंकर मुकाती द्वारा निकाली गई नर्मदा पर्यावरण संरक्षण यात्रा के तहत नर्मदा परिक्रमा करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। इस दौरान विभिन्न स्थानों पर जो दृश्य देखने को मिले वह दिल दुखाने वाले ही नहीं अपितु हमारी निष्ठुरता, दोगलनेपन, स्वार्थी, कत्र्तव्य विमुख होना स्पष्ट दर्शा रहे थे। उन तमाम विषयों पर फिर चर्चा करेंगे, फिलहाल मैं मां नर्मदा के उद्गम स्थल अमरकंटक में बड़ी तादाद में लगे नीलगिरी के वृक्षों की बात कर रहा हूं। जी हां, चूंकि हमारी यात्रा का मकसद ही नर्मदा और उसकी सहायक नदियों को सदा नीरा बनाएं रखने के लिए वृक्षारोपण हेतु लोगों को प्रेरित करना था। हमने विभिन्न स्थानों पर ग्रामीणों के बीच संगोष्ठी आयोजित कर उन्हें नर्मदा और उसकी सहायक नदियों के प्रति अपना दायित्व बोध कराते हुए खेतों की मेंढ़ों पर पौधारोपण करने प्रेरित किया। अधिक से अधिक सागौन, बांस जैसे पौधे लगाने हेतु चर्चा की गई। जिससे भू-जल स्तर ऊपर बना रहे और नदियों की जलधारा भी निरंतर जारी रहें। लेकिन जब हमारी यात्रा अमरकंटक पहुंची तो वहां देखा कि मैकल पर्वत श्रेणी के आसपास, नर्मदा उद्गम स्थल के संपूर्ण क्षेत्र में बड़ी संख्या में यूकेलिप्टस अर्थात नीलगिरी के वृक्ष लगे हुए हैं। कुछ स्थानों पर कटे हुए पेड़ भी देखने को मिलें। जब इस संबंध में जानकारी ली तो पता चला कि वन विभाग द्वारा ही कटवाएं गये है। लेकिन यह वृक्ष कटाई का कार्य वहां मौजूद वृक्षों की तुलना में बहुत कम था। आपको बताते चलूं कि नीलगिरी जिसको कहीं कहीं सफेदा भी कहा जाता है, यह पेड़ जमीन से भू जल को सोखकर वायुमंडल में जलवाष्प छोडऩे के लिए जाना जाता है। जिससे आसपास के क्षेत्र का भूजल स्तर तेजी से गिर जाता है। यह पेड़ आस-पास से प्रतिदिन 40-50 लीटर पानी खींचता है। इसकी जड़ें बड़े क्षेत्र से पानी खींचने में सक्षम होती हैं तथा जरुरत पडऩे पर यह 6 से 9 मीटर तक बढक़र भी पानी खींचने का कार्य करती हैं। कर्नाटक सरकार ने तो अपने प्रदेश में घटते भूजल स्तर को देखते हुए वर्ष 2017 में कानूनी तौर पर प्रतिबंध लगा दिया है।

कृषि वैज्ञानिकों के अनुसार यूकेलिप्टस के पेड़ में दूसरे अन्य पेड़ों की अपेक्षा तीन गुना पानी अधिक सोखने की क्षमता होती है। इसके अलावा इनकी पत्तियों से वाष्पोत्सर्जन की प्रक्रिया भी तेजी से होती है। जड़ें मिट्टी में सीधी बहुत गहराई तक जाकर पानी खींचती हैं। पेड़ों की संख्या अधिक होने पर क्षेत्र के भूगर्भ जलस्तर में कमी आ सकती है। इसके अलावा अनाज उत्पादन वाले खेतों में इसे लगाने से मिट्टी की उर्वरता को भी नुकसान पहुंचता है। अमरकंटक में लगे नीलगिरी वृक्षों को लेकर भी वैज्ञानिकों द्वारा मध्यप्रदेश सरकार को नर्मदा संरक्षण हेतु वहां से नीलगिरी वृक्षों को हटाएं जाने हेतु रिपोर्ट लगभग 38 वर्ष पहले ही सौंप दी गई थी। सरकार ने नर्मदा और मैकल पर्वत से निकलने वाली नदियों को सदा नीरा बनाएं रखने हेतु वर्ष 1987 में इस क्षेत्र से यूकेलिप्टस वृक्षों को हटाने की योजना बनाई थी। योजना बन गई, फाइलें चलती और अटकती रही, लेकिन मैदानी तौर पर किया गया कुछ नहीं। जब प्रदेश के तात्कालीन मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान द्वारा नमामि देवी नर्मदा यात्रा निकाली गई थी तब अमरकंटक के साधु संतों एवं कुछ पर्यावरणविदों ने नर्मदा जल संरक्षण को लेकर अमरकंटक से नीलगिरी के पौधे हटाकर यहां बांस, आम जैसे फलदार एवं औषधीयुक्त जड़ी बूटी वाले पौधे लगाने का आग्रह किया था। मुख्यमंत्री ने तब वन विभाग को निर्देशित किया था कि नर्मदा के तटवर्तीय क्षेत्रों में लगे हुए सभी नीलगिरी के पौधों को कांटा जाए और यहां जड़ी बूटी वाले औषधीयुक्त पौधे लगाए जाए। मुख्यमंत्री के निर्देशानुसार पौधरोपण करने और उसकी सुरक्षा हेतु फैंसिंग की कार्ययोजना भी बनाई गई थी। वन विभाग ने उस समय तो आनन फानन में लगभग 100 हेक्टेयर में लगे 30 हजार पेड़ों की कटाई कर दी थी, लेकिन इसके बावजूद लगभग 300 हेक्टेयर भूमि पर लगी नीलगिरी को काटने के लिए फाईल चलती रही। वर्तमान में वहां हजारों की तादाद में नीलगिरी के पेड़ नर्मदा उद्गम स्थल से लेकर कपिलधारा और दूधधारा तक देखने को मिलते है। चूंकि नर्मदा ग्लेशियर से निकलने वाली नदी नहीं है ऐसी स्थिति में उसके तटवर्तीय क्षेत्र में लगे पेड़ पौधे ही उसका मुख्य स्त्रोत माना जाता है। लेकिन हालात यह है कि नीलगिरी के पेड़ों के कारण आज उसका उद्गम स्थल ही संकट से जूझ रहा है। इस संबंध में वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि इन पेड़ों की कटाई के लिए केन्द्र सरकार से अनुमति मांगी गई है। लेकिन फिलहाल फाईल विभाग में लंबित है। कैसी विडम्बना है कि जिस स्थान से चलने वाली नर्मदा आज पूरे प्रदेश की समृद्धि का आधार बनी हुई है सरकार उसके स्त्रोत को लेकर ही उदासीन है।1987 में जिस अमरकंटक को नीलगिरी मुक्त करने की योजना बनाई गई थी आज 38 वर्षों उपरांत भी वह अधर में लटकी हुई है। जल जीवन मिशन हो या नदी संरक्षण जैसे तमाम विषयों पर केंद्र और प्रदेश सरकारें लम्बे चौड़े दावे और घोषणाएं तो करती रही है, लेकिन धरातल पर इसे चरितार्थ करने में कितनी तत्परता दिखाई जाती है इसका जीवंत उदाहरण अमरकंटक है।

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