विजयपुर जीत की उमंग बन गई हुड़दंग

 

प्रसंगवश

कमलनाथ, दिग्विजय सिंह, उमंग सिंगार, जीतू पटवारी

गणेश पांडे, भोपाल। एमपी कांग्रेस उत्साहित है, विजयपुर का चुनाव कांग्रेस जीती है। बुधनी में भी कांग्रेस ने अच्छे वोट हासिल किए हैं। इस जीत के बाद विधानसभा सत्र के शुरुआत में कांग्रेस ने घेराव के कार्यक्रम में भी उत्साह दिखाया। ओजस्वी भाषण भी हुए, जन समस्याओं के मुद्दे भी उठाए गए, सरकार को चैलेंज भी किया गया।

एमपी के विधानसभा चुनाव तो चार साल दूर हैं। इतने लंबे समय तक कांग्रेस में कोई पद पर बना रहे, यह भी आश्चर्यजनक ही होता है। कांग्रेस राष्ट्रीय स्तर से लगाकर राज्यों तक चेहरों पर भरोसे के संकट से गुजर रही है। जो पार्टी लंबे समय तक सत्ता में रहती है, उसके सामने ऐसा संकट स्वाभाविक ही होता है।

बीमारी का इलाज करने वाली दवाई भी एक समय के बाद अपना असर खो देती है। कांग्रेस के पास अदलने-बदलने के बाद भी जो भी चेहरे फिलहाल उपलब्ध हैं, उन सब चेहरों पर सत्ता का दंभ, समृद्धि का करप्शन, पदों के लिए संघर्ष तो आम दिखाई पड़ता है। कई कई नेताओं पर तो व्यक्तिगत अपराधों के मामले भी उनके चेहरों पर दिखाई पड़ते हैं।

दिग्विजय सिंह की दस साल की सरकार के बाद कांग्रेस मध्य प्रदेश में सत्ता से दूर होती गई। पंद्रह महीने के लिए कमलनाथ की सरकार बनी तो उसने सत्ता और पार्टी में ऐसे रिकॉर्ड बनाए कि, जनता को कांग्रेस की दक्षता का डर बैठ गया। कांग्रेस की सरकार गिराने वाले और इसका लाभ लेकर सरकार बनाने वाली बीजेपी को दो तिहाई बहुमत से विधानसभा चुनाव में जीत दिलाना कांग्रेस के नेताओं के सरकारी चरित्र के डर का ही उदाहरण हो सकता है।

हर सियासी चेहरा अपना विश्वास बनाए रखने के लिए सब कुछ करता है लेकिन कांग्रेस के नेता तो शायद ऐसा मानते हैं कि, उनका जन्म ही सत्ता के लिए हुआ है। इसीलिए कोई भी जन-आंदोलन या घेराव भी बिना विश्वसनीयता की छवि के एक औपचारिकता ही बन जाता है। जो बोल रहा है, जो जनता के सामने कोई मुद्दे रख रहा है, उसकी विश्वसनीयता सबसे पहली जरूरत है। जब तक वह विश्वास नेता हासिल नहीं कर पाएगा तब तक जीत की हर उमंग हुड़दंग ही बनती रहेगी।

सत्ता तक पहुंचने के लिए सियासी हुड़दंग से ज्यादा, गंभीरता की जरूरत होती है। गंभीरता के लिए, गंभीर और विश्वसनीय चेहरों की जरूरत होती है। एमपी में कांग्रेस पुराने और नए चेहरों के बीच में झूल रही है। कमलनाथ और दिग्विजय सिंह पुराने चेहरे हैं, उन पर कितनी भी टीका टिप्पणी हो लेकिन कार्यकर्ताओं के बीच में इन चेहरों की विश्वसनीयता अब भी है। कांग्रेस में जो नया नेतृत्व युवा चेहरों के रूप में स्थापित किए गए हैं, उनको विश्वसनीयता के पैमाने पर लंबा सफर तय करना होगा।

कांग्रेस के नए अध्यक्ष और नेता प्रतिपक्ष का एक वर्ष पूरा हो गया है। मुख्यमंत्री के एक वर्ष के कार्यकाल पर पर विपक्षी दलों की ओर से प्रतिक्रिया एक औपचारिकता हो गई है। कर्ज, क्राइम और करप्शन कांग्रेस की प्रतिक्रिया है, ना कर्ज की शैली नयी है और ना ही क्राइम और करप्शन का इतिहास नया है। इन सारे मुद्दों पर ही पिछला विधानसभा चुनाव लड़ा गया था। जनादेश ने इन मुद्दों पर अपना निर्णय सुना दिया है।

करप्शन के मामले में तो कांग्रेस की पंद्रह महीने की सत्ता में सरकार के ही मंत्री अपने वरिष्ठ नेताओं को माफिया और ना मालूम क्या-क्या कहकर आक्षेप लगाया करते थे। यह आरोप भले ही सियासी नजरिए से लगाए जाते हैं, लेकिन सोशल मीडिया के जमाने में हर बात का रिकॉर्ड होता है और वक्त के साथ उन पर चर्चा भी होती है। वक्तव्यों पर चेहरों की विश्वसनीयता बनती और परखी जाती है।

एमपी में कांग्रेस को बीजेपी से मुकाबला करना है। हर उस राज्य में जहां कांग्रेस का बीजेपी के साथ सीधा मुकाबला है, वहां कांग्रेस पिछड़ जाती है। हरियाणा और महाराष्ट्र के परिणाम यही बताते हैं। कांग्रेस और बीजेपी की संगठन स्टाइल अलग-अलग हैं। कांग्रेस का संगठन व्यक्तिवाद पर चलता है।

चाहे दिल्ली हो चाहे भोपाल हो जो पद पर बैठा है, उसकी इच्छा और धमक संगठन के लिए निर्देश होता है। कांग्रेस का संगठन व्यक्तिवाद के इर्द-गिर्द घूमता है। व्यक्तियों के ही गुट हैं। हर गुट अपनी अलग रणनीति पर काम करता है।

कांग्रेस की एक और समस्या है कि, जैसे ही कुछ पॉजिटिव होता है, थोड़ी संभावना बढ़ती है तो कांग्रेस का हर पदधारी भविष्य का मुख्यमंत्री बनने के लिए अपने लिए पॉजिटिव करने से ज्यादा, प्रतिद्वंदी के लिए नेगेटिव ऐसा करने लगता है कि, पार्टी ही पीछे चली जाती है। मध्य प्रदेश में तो कांग्रेस में यह संकट ज्यादा है।

जो भी नया नेतृत्व है, वह दोनों नए चेहरे भविष्य की रेस में एक दूसरे से टकराते देखे जा सकते हैं। लंबे समय के बाद जब कांग्रेस की कार्यकारिणी बनी तब उसमें भी गुटों की टकराहट और विवाद किसी से छुपे नहीं हैं।

मीडिया रिपोर्ट्स पर यकीन किया जाए तो नेता प्रतिपक्ष के समर्थकों को ही कार्यकारिणी में जगह नहीं मिल पाई। आलाकमान के सामने कार्यकारिणी का विषय खत्म हो गया है, ऐसा भी नहीं कहा जा सकता। उसमें नए नाम जोड़े जा सकते हैं।

नेता को भरोसा कमाना पड़ता है। यह किसी पद से नहीं आ जाता। जिन नेताओं ने पूरी जिंदगी लगाई वह तो भरोसे के मामले में चूक ही जाते हैं तो नए नए और युवा नेतृत्व के तो भरोसे के अपने पैमाने हैं। चुनाव बहुत खर्चीला हो गया है। जिस पार्टी की सरकार बन गई वह तो चुनाव की व्यवस्था में लग जाता है लेकिन जिन्हें विपक्ष का मौका मिलता है वह भी अगले चुनाव के खर्च की व्यवस्था पांच साल ही करते दिखाई पड़ते हैं। पार्टी संगठन का खर्च भी चलाना बहुत आसान नहीं होता। पार्टी और चुनाव लड़ने वाले का मनी मैनेजमेंट और जन विश्वास में टकराहट होती रहती है। जब कोई भी मनी मैनेजमेंट करेगा तो कुछ ऐसा करना पड़ता है, जो जनता से कभी छुपता नहीं है। मंचों से भाषण कुछ भी दिया जाए लेकिन जनता के भरोसे को धोखा नहीं दिया जा सकता।

अगले विधानसभा चुनाव के पहले विधानसभा सीटों का परिसीमन भी हो सकता है। आज जो सीटें हैं, उनका स्वरूप बदल सकता है। महिलाओं का रिजर्वेशन भी लागू हो सकता है। इस कारण जो जहां से निर्वाचित है उसके विधानसभा क्षेत्र का वही स्वरूप होगा यह अभी से कहा नहीं जा सकता। कांग्रेस का गम, चेहरों पर विश्वास कम बना हुआ है। चेहरे पर भरोसा कैसे स्थापित किया जाएगा यह कांग्रेस के लिए दीर्घकालीन रणनीति हो सकती है। जब सामने भरोसे के चेहरे हों, तब तो इसकी और अधिक जरूरत हो जाती है। मुद्दे या भाषण नहीं बल्कि नेतृत्व पर भरोसा ही राजनीति का भविष्य है।

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