दोनों दलों के बागी कर सकते हैं कई सीटों पर उलटफेर

 

गणेश पांडे, भोपाल। मध्यप्रदेश के चुनावी मैदान में अब सारे मोहरे खुलकर सामने आ गए हैं। बगावत से जूझ रही पार्टियों की मान-मनौव्वल कितनी असरदार और कितनी बेअसर रही है यह सारे पत्ते खुल गए हैं। बागियों के मामले में भी कांग्रेस और बीजेपी के बीच में कड़ी टक्कर हो रही है। किसके ज्यादा किसके कम, यह तय करना मुश्किल सा हो रहा है। दोनों दलों के बागी कई सीटों पर उलटफेर करते दिखाई पड़ रहे हैं। टिकट वितरण में गलती करने के मामले में दोनों दल एक-दूसरे को पछाड़ते हुए दिखाई पड़ते हैं। बगावत विपक्ष को ज्यादा नुकसान करती है। सत्ता विरोधी मत अगर एकतरफा मुख्य विपक्ष के खाते में चला जाता है तो सत्तापक्ष को चुनाव में नुकसान होता है, जब भी सत्ताविरोधी मतों का विभाजन होता है, तब तीसरे दलों और बगावती- निर्दलीय उम्मीदवारों के बीच में विभाजित सत्ता विरोधी मत सत्ताधारी दल को ही लाभ पहुंचाते हैं। सपा-बसपा-आप एआईएमआईएम और बागी निर्दलीयों द्वारा जो सेंध लगाई जाएगी उसका नुकसान स्वाभाविक रूप से कांग्रेस को ज्यादा और बीजेपी को कम होने की संभावना है। बीजेपी के चुनावी रथ के सारथी सपा-बसपा-आप और कांग्रेस के बागी-निर्दलीय बनते दिखाई पड़ रहे हैं। राज्य के कई इलाकों में सपा का वजूद चुनावी नतीजे को उलटफेर करने में सक्षम दिखाई देता है। पहले भी सपा एक-दो सीट जीतती रही है। इस चुनाव में भी सपा ऐसी स्थिति में है जो कम से कम दो सीटों पर जीतने का दावा कर सकती है। कई सीटों पर कांग्रेस को नुकसान भी सपा के कारण हो सकता है। जहां तक बसपा का सवाल है, इसके प्रत्याशी बीजेपी के ट्रंप कार्ड के रूप में दिखाई पड़ रहे हैं। बीजेपी के चाणक्य केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने भी इसी ओर इशारा किया था कि सपा और बसपा के प्रत्याशियों को चुनाव मैदान में मौजूदगी के लिए पार्टी को सहयोगात्मक रुख रखना चाहिए। ग्वालियर-चंबल और विंध्य अंचल में बीएसपी ताकत के साथ चुनाव लड़ रही है।

बसपा से कांग्रेस को हो सकता है नुकसान

बीएसपी के अधिकांश प्रत्याशी भाजपा या कांग्रेस के बागी ही हैं, जिस जाति समूह में बसपा का आधार बना हुआ है, वह मध्यप्रदेश में कांग्रेस की समर्थक मानी जाती है। कई सीटों पर बसपा ने ऐसी ही जातियों के प्रत्याशी मैदान में उतारे हैं जो कांग्रेस के प्रत्याशियों को नुकसान पहुंचा सकते हैं। बसपा वैसे भी राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस के गठबंधन में शामिल नहीं है। मध्यप्रदेश का चुनाव यूपी चुनाव का आभास दे रहा है। बसपा के कारण सपा और आरएलडी गठबंधन को हार का सामना करना पड़ा था।

बगावत बीमारी बन गई

पार्टियों में बगावत और विद्रोह चुनाव की अनिवार्य बीमारी बन गई है। कोई भी दल इससे अछूता नहीं है। एमपी चुनाव में इस बार बगावत और आंतरिक विद्रोह दोनों दलों को परेशान कर रहा है। प्रत्याशियों के चयन में गड़बड़ियों के कारण बहुत बड़ी संख्या में विधानसभा सीटों पर पार्टी से ज्यादा प्रत्याशी महत्वपूर्ण हो गया है। प्रत्याशियों के चेहरे पर जनादेश की मानसिकता बढ़ती जा रही है। टिकट वितरण में ज्यादा गलती करने वाले दल को इसका खामियाजा भुगतना पड़ेगा। ग्वालियर-चंबल अंचल जहां बीजेपी निराशा और कांग्रेस उत्साह से भरी थी वहां परिस्थितियां एकदम से बदलती हुई दिखाई पड़ रही है। इस अंचल में टिकट वितरण में कांग्रेस की ओर से बेशुमार गलतियां की गई हैं। बागी उम्मीदवारों की सबसे ज्यादा पकड़ इसी इलाके में देखी जा रही है और इसके कारण नतीजे में उलफेर भी होता दिखाई पड़ रहा है।

बगावत का इतिहास से सबक नहीं

बगावत और विद्रोह के पुराने इतिहास पर नजर डाली जाए तो इसका सर्वाधिक असर कांग्रेस के भविष्य पर ही पड़ता रहा है। कमलनाथ को अपनी सरकार बगावत के कारण ही गंवानी पड़ी। कांग्रेस की दिग्विजय सरकार को भारी बहुमत से हराने वाली पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने जब पार्टी से बगावत की तब उनके साथ एक भी विधायक नहीं गया था। इसके विपरीत कांग्रेस में बगावत के समय ज्योतिरादित्य के साथ 22 विधायक पार्टी छोड़ गए थे। जिन राजनीतिक दलों में संगठन की धारा कमजोर होती है, व्यक्तिगत नेताओं की राजनीति हावी होती है वहां बगावत ज्यादा असरकारी होती है। एमपी में कांग्रेस संगठन तो वरिष्ठ नेताओं के गुटों के समूह की तरह कॉरपोरेट ऑफिस के रूप में काम करता दिखाई पड़ता है। राजनीतिक संगठन के मामले में मध्यप्रदेश का भाजपा संगठन विशेष स्थान रखता है। यद्यपि बीजेपी के संगठन में भी सत्ता की खामियां बढ़ती जा रही हैं।

बीजेपी संघटनात्मक तौर पर मजबूत

इसके बावजूद प्रदेश में कांग्रेस की तुलना में बीजेपी का संगठन काफी मजबूत है। संगठन की संरचना का सदुपयोग कर भाजपा अपनी बगावत को नियंत्रित करने में काफी हद तक सफल होती भी दिख रही है। जो बागी संगठन की बात दरकिनार कर चुनाव मैदान में डटे हुए हैं उनको भी या तो मना लिया जाएगा और नहीं तो चुनाव पर उनके असर को संगठन की शक्ति से सीमित करने की कवायद की जा रही है। चुनावी तैयारी और प्रचार अभियान में भी बातें ज्यादा काम कम के शिकार दल और नेता खुशफहमी और गलतफहमी के बीच झूल रहे हैं। जनता खामोश है, मुख्य दलों के जनाधार बराबरी पर हैं, जिस दल के प्रत्याशियों के चेहरे क्षेत्र में मैनेजमेंट करने में सफल होंगे वही दल सरकार बनाएगा। पार्टी-नेताओं का अति आत्मविश्वास प्रत्याशियों की ताकत के बदले आफत बन गया है।

Views Today: 2

Total Views: 46

Leave a Reply

लेटेस्ट न्यूज़

MP Info लेटेस्ट न्यूज़

error: Content is protected !!