एक स्मृति यात्रा-चौ.मदनमोहन समर
एक हँसता खिलखिलाता शहर था हरसूद। सुदूर पूरब के हावड़ा से चल कर मुम्बई को जाने वाली मेल की खिड़किओं से न जाने कितनी बार लोगों ने हरसूद देखा होगा। घने सागवान और साल के पेड़ो से आच्छादित हरसूद के जंगल अपनी रंगत में आकर सारी धूप को ओढ़ लेते थे।कचौरी,-समोसे के ठेले, केले वालों की फेरी और सुबाह से शाम तक प्रकृति की गूंजती किलकारिओं वाला हरसूद अपने 249 साथी गाँवो के साथ आखिर रेवा मैया की गोद में समा कर खामोश हो गया।
मैने 1994 की गर्मियों में पहली बार इस शहर को देखा था। तब मैं धार जिले के धरमपुरी में थाना-प्रभारी था। तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री दिग्विजय सिंह का हरसूद दौरा था। मेरी ड्यूटी रिंग-राउंड में लगी थी। हमारे एसडीओपी श्री माधवसिंह रघुवंशी जी के साथ मैं हरसूद गया था। हरसूद को मृत्युदण्ड दिया जा चुका था। इंदिरासागर बाँध का काम शुरू हो चुका था। यह वही बाँध है जिसकी नींव भारत की प्रधानमंत्री आदरणीया श्रीमती इंदिरा गाँधी द्वारा अपनी शहादत से एक सप्ताह पहले 23 अक्टूबर 1984 को रखते हुए कहा था कि मेरे शरीर के रक्त का एक एक कतरा मेरे देश के काम आयेगा। 1992 में इस बाँध का काम शुरू हुआ और इसे चलते हुए दो साल हो चुके थे। लेकिन यह वह दौर था जब यह काम बहुत ही धीमी गति से चल रहा था और हरसूद के डूबने की बातें चरम पर थीं। लेकिन इस आबाद और बेहद उन्नत कस्बे को उम्मीद थी कि वह जल-समाधि लेने से बच जायेगा। उसके मृत्युदण्ड की अपील और मर्सी पिटीशन जरूर सुनी जाएगी, क्योंकि वह तो पूरी तरह निर्दोष है। उस गर्मी में भी निमाड़ के इस शहर की रंगत तल्ख नहीं थी। मैने इसकी शाम अपेक्षाकृत शीतल महसूस की थी। लोगों की चहल-पहल और सजे हुए बाजार आकर्षक थे और अपनी समृद्धि तथा वैभव का प्रदर्शन करते हुए आने वाली किसी भी मुसीबत से बेखबर से थे। मुख्यमंत्री जी भी तो यहाँ इसीलिए आ रहे थे ताकि वे कुछ आश्वासन दे सकें यहाँ की हवा को कि वह निरंतर बहती रहेगी लेकिन यह न तो सम्भव था और न ही हरसूद का प्रारब्ध था। यहाँ पहली बार ही मेरी मुलाकात एक युवक से हुई। आज भाई सुभाग सांड हमारे बहुत अच्छे मित्र हैं।
इसके बाद से हरसूद मेरी स्मृति में कई बरस तक नहीं आया। हाँ अखबारों में इसका छलकता हुआ दर्द सरसरी नजर से गुजर जाता था। एक बार बीच में सुभाग जी ने दशहरा कवि-सम्मेलन के लिये मुझसे सम्पर्क किया, लेकिन धार जैसे अति संवेदनशील जिले में तिरला थाने का थाना-प्रभारी होने से दशहरे पर अपना थाना छोड़ना सम्भव नहीं होता था, सो मुझे इंकार करना पड़ा। इस तरह हरसूद से मेरा कोई सम्पर्क ही नहीं रहा।
अक्टूबर सन् 2000 में मेरा स्थानांतरण धार जिले से खण्डवा जिले में हो गया। यहाँ पर मैं सिर्फ हरसूद से परिचित था। उन दिनों नर्मदा सागर बाँध का कार्य काफी तेजी से चल रहा था। करीब 249 गाँव व हरसूद कस्बे के लोग चिंतातुर थे। यह सारा क्षेत्र डूब रहा था। हरसूद की मृत्यु का समय नज़दीक आता जा रहा था। तमाम एनजीओ सक्रिय थे। राजनीति अपने रंग दिखा रही थी। हरसूद और उसके आसपास के गाँवों में आए दिन आंदोलन होते थे। लोग अपनी मिट्टी के छूटने से दुःखी थे और देश-दुनिया के लोग आकर यहाँ अपने-अपने तंदूर तपा रहे थे।
हम लोगों का जब एक जिले से दूसरे जिले में स्थानांतरण होता है तो नए जिले में जाकर वहाँ का माहौल समझना होता है। अधिकांशतः सभी थानों पर थाना-प्रभारी पदस्थ होते हैं। इसलिए पोस्टिंग के लिए कुछ इंतजार करना होता है। तब तक जिले की अन्य व्यवस्थाओं में सहभागिता निभाना होता है। उस समय खण्डवा के पुलिस अधीक्षक श्री संजय झा साहब थे। सो मैं भी पुलिस अधीक्षक खण्डवा के क्राईम रीडर के रूप में कार्य देख रहा था तथा जिले में कानून व्यवस्था की स्थिति में दल-बल के साथ अपना योगदान दे रहा था। हरसूद में हफ्ते-पंद्रह दिन में किसी न किसी का दौरा होता ही रहता था। इसलिए मैं हरसूद अक्सर जाता था। एक उन्नत और पुराने शहर की दीवारें मुझे हमेशा काँपती हुई महसूस होती थीं। उसके आँगन-द्वारे-मुंडेरें सहमी सी लगती थीं। तमाम सर्वे होते। बहस होतीं। गरमा-गरमी होती। धरने-प्रदर्शन होते। और हम इन सबके के साक्षी बनते। मैं जानता था कि अपनी मिट्टी और आँगन छोड़ने का दर्द क्या होता है। इसलिए जब भी सख्ती बरतने की जरूरत होती मैं पिछली कतार में चला जाता था। यह कोई कायरता नहीं थी। यहाँ मुझे समाज के दुश्मन नहीं बल्कि समाज की पीड़ा दिखाई देती थी। इस जगह मेरी भूमिका भी कोई निर्णायक अथवा अग्रणी नहीं होती थी। क्योंकि न तो मैं हरसूद में पदस्थ था और न ही मेरा कोई उत्तरदायित्व होता था। मैं पुलिस अक्षीक्षक साहब के साथ ही अक्सर जाता था और सिर्फ स्थिति को ऑबजर्व करता था। इस कारण मुझे हरसूद को बहुत नजदीक से देखने व समझने का अवसर मिल रहा था। मैं जगमगाते हुए एक शहर के अंधेरे को महसूस करने लगा था।
लोगों को मुआवजा भी बड़ी राशि के रूप में मिल रहा था। कुछ लोग अंधाधुध खर्च कर रहे थे। विलासिता के साधन बेधड़क खरीद रहे थे। अपराध बढ़ रहे थे। अक्सर मारपीट और छीना-झपटी की शिकायतें हरसूद की तरफ से आ रही थीं। इस दशा में हरसूद क्षेत्र उन लोगों के लिए बेहद महत्वपूर्ण हो गया था जिनके अपने स्वार्थ थे। खासतौर से शासकीय विभागों में।जिधर देखो उधर बदहवासी थी। किसी को भी अपने सुरक्षित कल की जानकारी नहीं थी, जो जितना लाभ ले सकता था लेने की जुगाड़ में था । हरसूद के विस्थापन के लिए छनेरा बसाया जा रहा था। बलड़ी थाने को किल्लोद गांव में शिफ्ट किया जाना प्रस्तावित था। राजनैतिक सरगर्मियां बढ़ने लगी थीं। उप-मुख्यमंत्री स्व. सुभाष यादव जी के जिम्मे विस्थापन था अतः उनके दौरे और आगामी चुनाव को दृष्टिगत रखते हुए सम्भावित मुख्यमंत्री की दावेदार आदरणीया उमा भारती जी के दौरे हरसूद को मथ रहे थे। स्थानीय विधायक श्री विजय शाह की सक्रियता अपने चरम पर थी। हम लोग इन सबमें रम चुके थे।
वर्ष 2001 की मोहर्रम के समय 6 मई को मेरी पदस्थापना थाना-प्रभारी पंधाना के पद पर हो गई। करीब छः माह में मैं खण्डवा जिले को काफी कुछ समझ गया था। पंधाना की अपनी चुनौतियां थीं। पुलिस अधीक्षक चूंकी हरसूद के कारण व्यस्त रहते थे तो वे पंधाना में कोई तनाव नहीं चाहते थे। और इस हेतु उन्होने मेरा चयन किया था जो मेरे लिए सुखद तो था ही लेकिन चुनौतीपूर्ण भी था। पंधाना गोलीकाँड को लोग अभी भूले नहीं थे।
खण्डवा जिले में होने के कारण यहाँ से भी कई बार महत्वपूर्ण कानून व्यस्था के अवसरों पर मुझे हरसूद जाना होता था। वक्त गुजरता जा रहा था और हरसूद उजड़ता जा रहा था। फिर भी बहुत से लोगों को आशा थी कि कहीं न कहीं से कोई ऐसा निर्णय होगा जो हरसूद को डूबने से बचा लेगा।बस इसी आशा में लोग मुआवजा लेकर भी अपने घर का मोह नहीं छोड़ पा रहे थे। वे अपने अतीत की मधुर स्मृतिओं को डूबते हुए नहीं देखना चाहते थे। लेकिन यह तो सम्भव ही नहीं था। हरसूद के मृत्युदण्ड की तिथी नजदीक आती जा रही थी।
जो दूरदृष्टा थे वे अपना वजूद उखाड़ कर खण्डवा, इंदौर, बड़वाह, सनावद, खरगौन, खातेगाँव, हंडिया,नेमावर, हरदा, खिरकिया, इटारसी, भोपाल जैसी जगहों पर बसने लगे थे तथा अपना रोजगार जमा रहे थे। लेकिन अभी उनके आँगन में लगे तुलसी के बिरवे, उनके बौराते हुए आम, चौक-चबूतरे और उन पर बिराजे हुए बमभोले, बजरंगी, कुछ न कुछ आशा बंधा रहे थे। विस्थापन के लिये जून से सख्ती होने लगती थी। बुजुर्ग लोग कहते थे पूरी जिंदगी इसी घर में गुजारी है अब प्राण यहीं निकलेंगे डूबना है तो डूबेंगे तरना है तो तरेंगे लेकिन अपना घर नहीं छोड़ेंगे जबकी सरकार के नुमाइंदे समझाकर, बुझाकर, डराकर, हडकाकर जैसे भी हो उन्हें हटाने में लगे थे। बाँध का काम युद्ध गति से जारी था।सन् 2000 से हर साल यह प्लान होता था कि इस बार कुछ पानी रोका जाए लेकिन विस्थापन की समस्या के कारण ऐसा नहीं हो सकता था।
हरसूद में हर दशहरे पर एक बड़ा कवि-सम्मेलन होता था। सुभाग भाई उसके संयोजक होते थे। खंडवा में पदस्थ होकर भी मैं उस कवि-सम्मेलन में नहीं जा पाता था। वर्ष 2003 में सुभाग भाई ने मुझे कहा समर साहब इस बार कुछ भी करो आप इस कार्यक्रम को सम्भालो। फिर पता नहीं आगे क्या हो। भाई विनीत चौहान, अशोक नागर, अना देहलवी, दर्द शुजालपुरी और शबाना शबनम को हमने इस कार्यक्रम में आमंत्रित किया। यहाँ पहली बार दर्द जी के बेटे कुमार सम्भव को भी हमने सुना। इस कार्यक्रम के लिए मैने एसपी साहब से विशेष अनुमति प्राप्त की। पंधाना का दशहरा उत्सव समाप्त होने के बाद करीब 11-00 बजे मैं हरसूद के लिए चला था। बाँध की बलिवेदी पर चढ़ रहे एक हँसते-खिलखिलाते शहर की उदासी के दौरान यह कवि-सम्मेलन बहुत ही भव्य था। हर वर्ष से अधिक श्रोता उपस्थित थे। मृत्यु के मुहाने पर खड़े शहर में लोग उत्साहित भी होते हैं और जीवट भी यह मैने हरसूद में मंच पर खड़े होकर माईक के पीछे से देखा था।
यह हरसूद का आखरी उल्लास था और आखरी ही दशहरा जिसमें खुशियां बाकी थीं। मैने एक मरते हुए शहर को खिलखिलाते देखा था। उसे झूमते हुए देखा था। उसे तालियां बजाते हुए देखा था। यही वह आखरी दशहरा था जिसे हरसूद वासिओं नें बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में देखा था, उस साल हरसूद ने आखरी बार दुर्गा विसर्जन किया था, उस दिवाली उसके आँगन ने आखरी बार रंगोली देखी थी। उसकी दिवारों ने आखरी बार संझामाता अंकित कराई थी। और उसकी सड़कों ने आखरी बार गणगौर की डोली निकलते देख गीत गाए थे।
वर्ष 2003 में प्रदेश में सत्ता-परिवर्तन हुआ। उमा जी प्रदेश की मुख्यमंत्री बन गईं। अब स्थितियां बिल्कुल बदल चुकी थीं। जिम्मेदारियां पाला बदल चुकी थीं। अतः इस वर्ष हरसूद को खाली कराए जाने की चुनौती नई सरकार के कंधों पर थी। विजय शाह जी विपक्षी विधायक से सत्ताधारी मंत्री हो चुके थे। तंदूरों के ताप की लकड़ियों की सप्लाई के टॉल इधर से उधर हो गए थे। 6 मई 2004 को मैं पंधाना थाने पर अपने थाना प्रभारी के तीन वर्ष पूर्ण कर चुका था। यह चुनौतियों के बीच मेरे लिए बहुत ही बड़ी उपलब्धि थी।
इस मानसून में हरसूद को डूबना था। तुलसी कोट को समा जाना था रेवा की धारा में। इस साल दालान की सारी यादें बह जाना थीं। उखड़ कर चले जाना था उन खम्भों को जिन पर कभी बचपन ने झूले डाले थे। इस साल हरतालिका तीज पर काँस के सफेद फूल खेतों में नहीं दिखने थे। और इस सावन कोई भी बहन-बेटी हरसूद में अपने पीहर राखी लेकर नहीं आने वाली थी। खत्म हो रहा था आस्तित्व हरसूद का। उसके चौराहों पर जलती हुई स्ट्रीट लाईट निकाल ली जाना थी। उसका सर्किट हाउस जिसमें प्रदेश-देश के सभी दिग्गज नेता रात गुजार चुके थे अब खंडहर होकर रिसते हुए दूर तक नर्मदा में समा जाने वाला था।
हरसूद को उजाड़ने के लिए सारी तैयारियां हो चुकी थीं। जैसे भी हो हरसूद को खाली कराना था। कुछ गांवों को खाली कराने के समय उनका क्रंदन और रुदन मैनें सुना था। अपने दरवाजों को निहारते लोगों की आँखों से बहते आँसू मैने देखे थे। अपने घुटनों में सर देकर बिलखते मैंने देखा था झक्क सफेद बालों को। मैने देखा था लाल और कबरे बैलों से जुती बैलगाड़ी में लदी गृहस्थी को उदासी लिए विस्थापित होते। मैने महसूस किया था दिन को सदियों पर भारी पड़ते फिर उन सदियों को गुमसुम होते…………और इस बीच जून में मेरा स्थानांतरण पंधाना से हरसूद थाना प्रभारी के पद पर हो गया।
नहीं…..यह सम्भव नहीं था। मैं ……. मैं कैसे कर पाऊंगा यह सब। कैसे खाली कराऊंगा हरसूद के घरों को। मैं कैसे साम-दाम-दण्ड-भेद से उन आँगनो कमरों से कहूंगा तुम बंद हो जाओ और भूल जाओ कभी तुमने नव-प्रणय के दृश्य देख कर लाली मली है शर्माते हुए। मैं उस नीम, जामुन, आम से कैसे कहूंगा जाने दो अपनी जड़ों को संवारने वालो हाथों को अपना बसेरा तलाशने। मैं उहा-पोह में ही था। लोग मुझे हरसूद पोस्टिंग पर बधाई दे रहे थे। लेकिन बधाई देने वाले मेरी उलझन को नहीं समझ पा रहे थे। तीन दिन बहुत ही गहन विचार में मैने गुजारे। आदेश था तो पालन करना ही था। लेकिन तभी चमत्कार हुआ। कुछ ऐसी परिस्थितियां निर्मित हुईं कि मेरा स्थानांतरण खण्डवा जिले से हरदा जिले में हो गया और मैं हरसूद की अभिशप्त दीवारों, सिसकते आँगनों व उसकी उदास सड़कों पर अपना रौब गांठने से बच गया।
मैने दो कविताएं लिखी हैं “अच्छा हुआ मैने हरसूद ज्वाइन नहीं किया” तथा “हरसूद की पीड़ा” खण्डवा के कवि सम्मेलनों में मुझे जब भी जाने का अवसर मिला मेरी कविता हरसूद की पीड़ा को व्यक्त करते समय मैने लोगों की आँखे डबडबाते देखीं हैं।
और अन्ततः हरसूद डूब गया। सोलह बरस बीत गए हैं, हरसूद को जल- समाधि लिए। रेवा मैया की गोद में समाया हुआ हरसूद जब भी पानी उतरने पर झांकता है तो पिछली कई शताब्दियां उसके इर्द-गिर्द गुनगुनाने लगती हैं ।न जाने कितनी मन्नतों के धागे वट सावित्री वाले बरगदों पर डूबे हुए आज भी बंधे होकर उभर जाते हैं। कितने महुए आज भी हरसूद की मादकता की स्मृतिओं में खोकर गहरी साँस लेते हैं। हरसूद के बच्चे वहाँ आकर अपने बिखरे से दालान को जिस पर कभी वे घुटनों के बल चल कर बड़े हुए थे ऊबड़-खाबड़ अवस्था में देख कर उदास हो जाते हैं। वो बहन-बेटियां जिनकी डोली को हरसूद ने अपने कंधे पर बिदा करते नीलकमल फिल्म का गीत गा कर आँखे नम की थीं आकर निहारती हैं उस इमली के पेड़ की बिना पत्ती की भीगी और खोखली डालिओं को जिनका स्वाद उन्हे आज भी याद है। मुआवजे की मरहम से ढंके घाव फिर से रिसने लगते हैं।आसमान में आता जाता सूरज और अपने साथियों के साथ चमकता हुआ चँदा जब नजर भर कर इन बिखरे हरसूदों को देखते होंगे तो कुछ तो सोचते होंगे। इंदिरासागर का लहराता महासागर सा जल भी क्रोध में बाँध की दीवारों पर टकरा-टकरा कर यही प्रश्न करता होगा- क्या विकास के लिए विनाश जरूरी है?
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