शिवराज तो बापड़ो आकाश पाताल एक कर रयो पर…?

प्रहलाद शर्मा

मध्यप्रदेश में गांवों ओर शहरों की सरकार बनाने का महाअभियान चल रहा हैं। गांवों की सरकार को लेकर तो नामांकन फार्म जमा होने ओर वापस लेने के बाद चुनाव चिन्हों का आवंटन हो चुका है। शहरों की सरकार को लेकर जहां फार्म जमा करने का दौर चल रहा है तो वहीं राजनीतिक दलों के कार्यकर्ताओं में पार्टी टिकट पाने को लेकर जद्दोजहद चल रही हैं। गांवों में कुछ स्थानों पर तो आपसी सहमति से निर्विरोध ही पंच- सरपंच भी चुन लिए गए हैं। बहुत अच्छी बात है। यह गांव की एकता और विकास की दृष्टि से भी एक अच्छी पहल है। जो प्रत्याशी चुनाव लड़ रहे हैं वह तीर कमान, पतंग, कुल्हाड़ी, फावड़ा, हल, बक्खर, बाल्टी, जग आदि चुनाव चिन्ह लेकर मतदाताओं के बीच पहुंचने लगे हैं। गांवों में विकास की गंगा बहाने के लंबे चौड़े वादे भी यह विकास के भागीरथ करते हुए पहले वाले से ओर सामने वाले से खुद को सच्चा व अच्छा जनसेवक बताने में कसर बाकी नहीं रख रहे हैं। कोई सत्ताधारी दल का समर्थक हैं तो वह अपनी सरकार की कल्याणकारी योजनाओं का हवाला देते हुए डबल इंजन की सरकार के रहते अच्छा विकास करने का दम भर रहा है तो विपक्षी दल का उम्मीदवार सत्ताधारी दल को विकास विरोधी बता रहा है। उम्मीदवारों के दावे ओर वादों के चलते ही मीडिया के प्रतिनिधि भी गांवों की ओर रूख करने लगे हैं। अब साहब यहीं सब गड़बड़ हो गई। वैसे तो व्यवसायिक हित लाभों के चलते मीडिया प्रतिनिधि जमीनी हकीकत चाहे कुछ भी देखकर आये, लेकिन छापा ओर दिखाया वहीं जायेगा या उतना ही दिखाया जायेगा जिससे वर्तमान ओर भविष्य का व्यापार चौपट न हो। अब साहब पापी पेट का सवाल तो सभी के साथ जुड़ा हुआ है। मैं भी उससे अछूता नहीं हूं। पहले दूसरों के अखबार में काम करता था तो आटा-दाल का भाव पता नहीं था। अखबार का कागज क्या भाव आता हैं, स्याही, प्लेट क्या भाव आती हैं। दो-तीन रुपये में बिकने वाला अखबार वास्तव में सारे खर्च मिला कर घर में कितने का पड़ता हैं और बिकता कितने में है। इसलिए पत्रकारिता का भूत सवार हुआ करता था। लेकिन भाई साहब जब से अखबार निकाला तो जैसे पत्रकारिता भूल गया। लेकिन कहते हैं ना की बंदर चाहे कितना ही बूढ़ा क्यो नहीं हो जाये वह कुलाटी मारना नहीं छोड़ता। बस यही आदत कभी कभी हिलौरे मारने लगती हैं तो उसका खामियाजा लंबे समय तक भुगतना भी पड़ता हैं। पर क्या करें आदत से लाचार हैं। बस इसी आदत के चलते अपने राम भी निकल पड़े गांवों की ओर। गांवों में एक कहावत चलती हैं कि भैया गोबर गिरेगा तो धूल लेकर ही उठेगा। पत्रकारों को वैसे भी खामियां या समस्याएं पहले दिखाई देती हैं। तो साहब अपने राम भटकते भटकते एक गांव की चौपाल तक पहुंच गए। कुछ अधेड़ व बुजुर्ग ग्रामीण यहां बैठकर पत्ते खेल रहे थे कुछ देख रहे थे। मुझे देखकर लगभग सभी का रूख मेरी ओर हो गया। गांव में नवादे(अनजान) व्यक्ति को देखकर उन्होंने पल भर के लिए अपना खेल रोकते हुए सवाल किया बाबूजी कौन ख देख रया हो। मैंने अपना परिचय दिया तो उन्होंने कहा चुनाव लड़ना वाला होन स मिलन आया होयगा? मैंने कहा नहीं आप लोगों से ही मिलने आया हूँ। हमारा पास काई ह भैया ? हम तो सब फोकट्या जसा पत्ता खेल क टेम पास कर रया। चुनाव लड़ना वाला होन स मिलो ओर उनकी खबर छापों तो तुम्हारो भी फायदों होयगो। तभी मैंने कहा दादाजी आप ही तो उनको हराने- जीतने वाले हो, तो आपसे ही बात करके छापना ज्यादा अच्छा है। इसी के साथ अपने जहन के कुछ सवाल पूछना शुरू कर दिया। तभी एक बुजुर्ग ने दरी चौड़ी करते हुए कहा बाबूजी पेलम बैठ तो जाओ। वहीं एक लड़के से कहा जा रे जग्या एक जग पानी तो भर ला, नी खई तो पानीज पीला द। मैंने कहा दादाजी आपके गांव में पहले के सरपंच ने क्या क्या विकास के काम किये थे। बाबूजी आप तो पढ़या लिख्या हो नी, सरपंच बिचारों काई ओका बाप का हाड़ विकास करगो? पैसा तो उपर स आय नी। दादाजी आजकल तो पैसे सीधे पंचायत के खाते में आते हैं और आपके क्षेत्र के तो विधायक सासंद सब सत्ताधारी दल के ही है फिर ? तभी एक दूसरे बुजुर्ग ने कहा बिलकुल सही के रया आप पर काम करना ओर बात करना म बड़ों फर्क रेय ह साहब। सब आंख म धूल झौंके हैं। जुवान तो.हाथ भर की चले पर काम अंगूल भर नी होय। दादा शिवराजसिंह चौहान ने तो गांवों, किसानों ओर मजदूरों के लिए बहुत काम किये हैं। सई केरया भैया शिवराज तो बापड़ो आकाश पाताल एक कर रयो पर ओका नीचे वाला काई कर रया। तुम गांव म घूम क आया कि नी? तुम खुद समझ जाओगा कित्तो विकास हुयो। दादाजी मुझे तो आपके गांव बाहर बहुत सुंदर मुक्तिधाम बना हुआ नजर आ रहा था। तभी एकसाथ दो तीन लोग बोलने लगे। बस सब मरो ओर जलो या व्यवस्था कर दी है। प्यासा मरो, डीपी जल जाये तो 10-15 दिन ओखअ सुधरवाना, बदलवाना का लिया बिजली वाला होन का चक्कर काटता मरो, फसल म टेम स पानी नी देवा तो उसा ही मर जावा। बाबूजी थोड़ा दिन गांव म रे क देखो, फिर मालूम पड़गी विकास काई हुयो। गांव म घूसता स तुम्हारा क खुशबू आई की नी? मैंने कहा कैसे खुशबू? बेल ढोर मरेल होन की। पेलम शोरनी की जगा हुया करती थी पर अब वहां मूंग बोया ह। सब अतिक्रमण कर दबा ली। लेकिन भाई साहब यह तो आप गांव वालो को भी देखना बोलना चाहिए कोई दूसरे गांव के व्यक्ति ने तो यहां आकर अतिक्रमण नहीं किया होगा? सरपंच तो आपके गांव का ही होता हैं उसको बोलना चाहिए। तभी एक व्यक्ति आगे सरक कर आया ओर बोला चार एक जमीन ओर पुरानी फटफटी थी जब चुनाव लड़्यो थो, सब न सोची गरीब आदमी ह सबकी सुनेगो, अच्छो काम करेगो, पर दारी कुरसी को पावर ही असो होय जे ओ प बैठ जाये, सब अकलभर हो जाये। आज बुलेरो गाड़ी ह, 10 मानी की जमीन ले ली, टीन की चादर उतार ख पक्को मकान बना लियो बस हो गयो विकास। रामयो रामलालजी बन गयो। आपका मतलब यह कि आपके गांव में विकास कार्य नहीं हुए। बाबूजी हमारी तो छोड़ो टीवी प देख्या कि नी भोपाल का आसपास का गांव का लोग चिल्ला रया। शिवराजसिंह चौहान को ऐसा क्या करना चाहिए जिससे सरकार की विकास योजनाएं आपके गांव तक पहुंच जाये? साहब हम तो अफ्फड़ धरया, ओना मासी टी टी घर गया तो माय बाप ने पीटी..हा.हा.हा..तभी एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति ने कहा शर्माजी दिन भर में बरसुदया ने कित्ता काम किया, टेक्टर वाले ने छह घंटे में कित्ता खेत बखरा यो, कोठा म इत्ता बोरा चना, इत्ती सोयाबीन ओर मूंग रख्या था, वो खेत म इत्ता बोया, यो खेत म इत्ता यो सारो हिसाब किताब जब एक अनपड़ किसान रोज रखे हैं तो मुख्यमंत्री को पतो नी की उनका विधायक मंत्री ओर अधिकारी काई कर रया ह? अरे उंचा उंचा मंच स मिठी मिठी बात तो हर कोई कर लेय पर जमीन प काई हो रयो या नी तो उन क दिखाय ओर नी देखन देय। उन क पूछनो चई नी कि सब विधायक अपना अपना क्षेत्र म काई काई काम कर रया ह बताओं, अफसर नेता हवा म तीर छोड़े हैं। मैंने कहा कि वैसे आपके क्षेत्र में किस पार्टी का जोर रहता हैं। इस पर एक बुजुर्ग ने ठेठ देहाती कहावत कहते हुए ठहाका लगाया कि साहब सब गू का भाई पाद ह। जो जित्यो वो अपनो। मैंने कहा वैसे आपके गांव में होना क्या चाहिए। तभी एक युवा चाय लेकर आ गया। एक व्यक्ति ने कहा भाई साहब होना तो बहुत कुछ है लेकिन होना जाना कुछ नहीं है आप तो चाय लो। मैं समझ गया कि यह लोग कहना चाहते हैं कि आप तो चाय पिओ ओर निकलो, हमारे खेल का मजा क्यो खराब कर रहे हो। हाडी के चावल टटोलने जैसे एक गांव के भ्रमण मात्र से सरकार की विकास योजनाओं ओर उनके जमीनी क्रियान्वयन की हकीकत को देखते हुए तो किसी शायर कि वह पंक्तियां याद आती हैं कि ‘ उनके पैर तले जमी नहीं, फिर भी उन्हें यकी नहीं ‘।

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